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________________ जैन- दर्शनः १२३: । संयमियों के गुणों में अनुराग रखकर उनके पैर दाबनावा उनकी जो कुछ आपत्ति हो उसको दूर करना तथा और भी जो कुछ उनका उपकार होसके करना वैयावृत्य है । गृहस्थ श्रावकों को प्रति i < दिन अनेक प्रकार के पाप लगते हैं परंतु इस व्रत के पालन करने से वे सब पाप नष्ट हो जाते हैं । संयमी मुनियों को नमस्कार.. करने से ऊँच गोत्र की प्राप्ति होती है, दान देने से भोगोपभोग को .. प्राप्ति होती है, भक्ति करने से उपासना करने से अनेक ऐश्वर्यों की प्राप्ति होती है । . मुनिराज प्रासु आहार लेते हैं इसलिये हरे प्रभासुक पत्ते पर रक्खा हुआ वा ऐसे पत्ते से ढका हुआ, आहार देना, आहार देते समय किसी प्रकार का अनादर करना, भूल, जाना : और अन्य श्रावक दाताओं से ईर्ष्या रखना इस व्रत के दोष हैं ! : श्रावकों को इन सबका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिये । इस प्रकार तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का स्वरूप "" 4 कहा • ये सातों व्रत शील कहलाते हैं तथा ये सातों ही शील श्रतों की रक्षा करते हैं, उनको बढाते हैं इसलिये इनको शील · " कहते हैं । इस प्रकार पांच अणुव्रत, तीन गुरंगवत, चार शिक्षात्रत ये बारह व्रत श्रावकों के कहलाते हैं, तथा ये बारह श्रावकों के . उत्तर गुरंग कहलाते हैं । पहले बतला चुके हैं कि श्रावक लोग मुनि व्रत धारण करने की इच्छा करते रहते हैं । जो श्रावक इन व्रतों को निर्दोष पालन करते रहते हैं उनको मुनि पद धारण करने का . ★ · 2
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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