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________________ [१०४ ____जैन-दर्शन ----------- -- अग्नि में खेकर उसका धूआ दांये हाथ से भगवान की ओर करना चाहिये, अनेक प्रकार के ताजे फलों से पूजा करनी चाहिये और अंत में सब द्रव्यों का समुदाय रूप अर्ध्य वनाकर चढाना चाहिये । संध्याकाल के समय दीपक से प्रारती उतार कर धूप खेनी चाहिये । संध्याकाल के समय भी सामायिक करना चाहिये । इस प्रकार संक्षेपसे देवपूजा वतलाई । विशेष पूजाके भेद व स्वरूप श्रावका चारों से समझलेना चाहिये। __ गुरुकी उपासना-प्रातः काल के समय मुनिराज प्रायः जिनालय में विराजमान होते हैं । पूजा के अनंतर उनकी वंदना करनी चाहिये । तीन प्रदक्षिणा देकर तीनवार नमोस्तु कहकर तीनवार नमस्कार करना चाहिये, उनकी शरीर कुशल पूछकर जो कुछ सेवा हो करनी चाहिये, अष्ट द्रव्य से पूजा करनी चाहिये और जो कुछ धर्म कृत्य पूछना हो पूछना चाहिये । यदि मुनिराज-गांव के बाहर • हों तो वहां जाकर उनकी पूजा वंदना करनी चाहिये । म्वाध्याय-गुरूपासना के अनंतर श्रावकों को स्वाध्यायशाला में जाना चाहिये। यदि बहां पर शास्त्र-प्रवचन हो रहा हो तो सुनना चाहिये । अथवा स्वाध्याय के लिये नियमित ग्रंथ का मननपूर्वक स्वाध्याय करना चाहिये, जो विपय समझमें न आवे उन्हें वृद्ध जानकारों से पूछना चाहिये । इसके सिवाय स्वाध्याय शालामें जो श्रावक हों उनसे धर्मानुराग पूर्वक जुहारु कहना चाहिये सबकी क्षेम कुशल पूछनी चाहिये और अनेक प्रकार से सबको तृप्त करना चाहिये । इस प्रकार वात्सल्य अंग का पालन करना चाहिये। क्षेम कुशल से धर्मानुराग रसके सिवाय स्वाध्याय उन्हें
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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