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________________ जैन-दर्शन १०५] संयम-प्रतिदिन इन्द्रिय-दमनः के लिये कुछ न कुछ त्याग , करना संयम है। भोगोपभोग की सामग्री में से जो कुछ बन पडे उसका त्याग करना चाहिये । भोजन के अभक्ष्य भक्षण का त्याग करना.चाहिये तथा और-भी त्याग करने योग्य पदार्थों का त्याग करना चाहिये। ___ तप-उपवास करना, नियमित आहार से कम आहार लेना, किसी रसका त्याग कर देना, तप है। गृहस्थ श्रावक इन तपों को सरलता पूर्वक. कर सकते हैं । तपका स्वरूप पीछे बतलाया है उनमें से यथासाध्य यथाशक्ति जो बन पडे वह करना चाहिये। दान-श्रावक लोग जो कुछ धन कमाते हैं वह कितना ही प्रयत्न पूर्वक कमाया जाय तथापि , उसमें हिंसादिक पाप अवश्य होते हैं। उन पापों को शांत वा दूर करने के लिये श्रावकों को . योग्य पात्र के लिये दान अवश्य देना चाहिये। पात्र तीन प्रकार के है-पात्र, कुपात्र और अपात्र । तथा पात्र भी उत्तम, मध्यम, जन्य के भेद से तीन प्रकार हैं। उत्तम पात्र मुनि हैं, मध्यम पात्र व्रती श्रावक हैं और जघन्य पात्र अव्रत सम्यग्दृष्टी श्रावक हैं । मिथ्यानी व्रती कुपात्र है और व्रत रहित मिथ्यादृष्टी अपात्र है। इनमें से दान देने योग्य पात्र ही हैं । कुपात्र अपात्रों को दान देना व्यर्थ है। __ श्रावक.को उचित हैं कि वह भोजन तैयार हो जाय तब किसी भी उत्तम. पात्र वा मुनि को पड़गाहन करने के लिये द्वारपर खडा रहे, और जब कोई मुनि चर्या के लिये आरहे हों तो सामने आने
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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