SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीता । अपनी परीक्षाके समय जनकात्मजा बोली यही, मनसे वचनसे कायसे परको कभी चाहा नहीं । यदि हे अनल ! मिथ्या बचन हों भस्म कर देना मुझे, कैसी सदा में विश्वमें हूँ यह बताना है तुझे ? for शील सन्मुख देवियोंको राज्य वैभव तुच्छ था, पतिप्राण था पतिज्ञान था, पति ध्यान था सर्वोच्चथा । शिक्षित अनेकों देवियों होतीं रहीं जिस देशमें, बस टिक सकी होगी कहां अज्ञानता उस देशमें । इम अद्भ ुत और अपूर्ण चमत्कारको देखकर राजा भोजने दूसरे दिन अपने सभा पण्डितोसे यह प्रश्न ( समस्यारूप ) किया कि- " हुताशनश्चन्दन पंकशीतला. ' कवि शिरोमणि कालीदासने उत्तर दिया सुतं पततं प्रसमीक्ष्य पावके, नवोधयामास पतिं पतिवृता । पतिव्रताशापभयेनपीडितो, हुताशनञ्चन्दन पङ्कशीतल. ( काव्य प्रभाकर ) हमारा श्रद्धान | होवे अनल शीतल कही योगी चलित हों ध्यानसे. होते न थे विचलित कभी हम धर्मके श्रद्धानसे ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy