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________________ ác सर्वज्ञका पथ विश्वमें मिथ्या कभी होता नहीं, ऐसा सुदृढ़ श्रद्धान क्या उन पूर्वजों को था नहीं ? हम अन्ध श्रद्धालु न थे नित मानते थे बस वही, जिस बातको सप्रेम सादर सत्य कहती थी मही । श्रद्धानमें ही देव है इस बातका विश्वास था, सत्यार्थ विश्वाससे पाता न कोई त्रास धा । हमारी निःकांक्षा । करके अलौकिक कार्य हम करते न थे फल चाहना, रहती रही जागृत हृदयमें धर्मकी सद्भावना | निज कार्यका परिणाम जगमें सर्वदा मिलता स्वयम्, अवलोककर आदित्यको पंकज - विपिनखिलतान किम् निर्विचिकित्सा | देख कर अपवित्रताको हम न करते थे घृणा, अपने हृदयमें सोचते थे, गात्र यह किससे बना? तज न सकनी वस्तु अपने भावको किञ्चित् कहीं, यो ग्लानिकरना वस्तुसे सार्थक हमारा है नहीं । मृढ़ दृष्टि 1 नमते न थे महमा कभी भी हम किसी को भेष१ से, १० रियर पण्डित बनारसीदासजी परी जोव
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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