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________________ भगवानने सप्रेम ही उनको पढ़ाया था अहो ! हा। क्या अशिक्षित नारियोंसे भी भला होता कहो जीवनमयी ! अागिनी! हृदयेश्वरी प्राण-प्रिये ! ये कोषके मृदुशब्द सवही थे सदा उनके लिये। हम मानवोंके भी हृदयमें नारियों का मान था. हर एक बातों में हमें उनका बड़ा ही ध्यान था। गंधर्वदत्ता, अंजना, श्रीदेवकी, सुरमंजरी, . सीता, सुभद्रा, उत्तरा, नीली तथा मन्दोदरी। राजुल शिवा श्री चन्दना कुन्ती तथा शीलावती, - विजया,सती,दमयन्ति ब्राह्मी, सुन्दरी,पद्मावती। पतिदेवके आगे उन्हें प्रिय पुत्रकी चिन्ता न थी. आपत्ति भयकर शीलसे अपकार कुछ करतीन थी हाहा! सतीका एक बालक अग्निमें था गिर पड़ा, यह अग्नि चंदन समहुई आश्चर्य यह जगको पड़ा। १ एक रात्रिको वेष बदलकर धारा नगरी ( राजधानी ) घमते हुये राजा भोजने देखा-एक ब्राह्मणी अपने पतिकी सेवामें उपस्थित थी। अनायास उसका अल्प व्यस्क बालक खेलते २ हवन करनेके अग्निकुण्डमें गिर पडा, प्राझणी यह देखकर भी प्रसन्न चित्तसे पति की सेवामे तत्पर रही। उसके इस पतित्रत धर्मक प्रभावसे वालकको अमिने कुछ भी हानि नहीं पहुंचायी। . - - - -
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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