SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ ३३२ जो कोकिलासे भी मधुरवाणी सुखद नित बोलती, जो कर्ण पुटमें प्रेमसे पीयूष मानों घोलती । मृदु- फूलकी माला सदृश कोमल मनोहर देह है, सर्वाङ्ग सुन्दरता भरा लावण्यताका गेह है । पुरुषोंकी मान्यता । साधन समझते हैं स्त्रियोंको निज विषयकी पूर्तिका, अपमान करते इस तरह हम देवियों की मूर्तिका । अब तो समझते हम उन्हें अपनी पुरानी जूतिय, पर देव हमको मानती हैं आज भी वे देवियां । हमारी भूल । जो हैं अशिक्षित नारियां इसमें हमारी भूल है, परिवार ही सारा यहांका ज्ञानके प्रतिकूल है । हम दोष दें किसको अधिक नहिं दैवकी हमपर कृपा, निज वालिकाओंके पढ़ानेमें हमें आती नपा १ । जैन समाज | हा, आज जैन समाज जगमें शव सहशही जी रहा, पीयूष तज करके सुखद अज्ञान धारा पी रहा। १ कजा ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy