SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन भेद हा, हा, पड़ रहा है आजकल दूना यहाँ, हा, हो रहा नन्दन विपिनही तो सुखद सूना यहां। अन्ध श्रद्धा। इस अन्ध श्रद्धाका ठिकाना भी हमारा है कहीं ? अपना हिताहित सोचलें इतनी रही मति भी नहीं। परिणामको ही सोच पूर्वज कार्य करते थे बड़े, पर हम यहांपर रूढ़ियों के बन गये पालक कड़े। अनमेल विवाह । विल्ली सदृश छोटी बहू बर-राज वृद्ध क्रमेल १ हैं, इस आधुनिक संसारको पाणि ग्रहण तो खेल है। परयोग्य गुणशुभहोंन हों,पर रिद्धि सिद्धि समृद्ध हो कन्या उसे मिलती भले वह सौ घरसका वृद्ध हो। कन्या-विक्रय । ऐसे नराधम भी यहां हैं वेचते जो बालिका, उस द्रव्यसे भरते सतत जो गर्त अपने पेटका । निज बालिकाका मूल्य ले कितने दिवसनर खायगा, अघके उदयसे नष्ट धनके साथ तन हो जायगा। १ऊंट।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy