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________________ १६२ आभूषणों को ही अहो, वे आज भूषण मानतीं, हा, खेद है वे देवियां गुणसेन सजना जानती। नित चाहिये पगमे यहां तोड़े बड़े प्रिय पैजना, सूना दिखाता पांव तो भी पायजेवों के बिना । पतली कमरमें हो न जबतक सौ रुपेभर करधनी, रूठी रहे तबतक भवन में प्राण प्यारी भामिनी। ३१८ इन नारियों का आजकल तो मण्डनोंमें मान है, अपने सदनकी आयपर जाता न इनका ध्यान है। होंगे भवन भूषण अमित तो भी सदा ललचायेंगी. आभूषणों के हेत पतिसे नित्य कलह मचायेंगी। विधवाओंकी दुर्दशा। जबहत हृदय करता कभी वैधव्य दुखकी कल्पना, तब तोरहा जाता नहीं उससे कभी रोये विना । हा ! बाल अथवा वृद्ध लग्नों का यहांपर जोर है, अतएव विधवावृन्दका भी आतरव घनघोर है। पाषाण भी इनकी व्यथाको देखकर रोते अहो, तनधारियोंका चित्त क्या फिर दुःखसे व्याकुल न हो
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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