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________________ २२ श्री पार्श्वनाथ का धर्म सर्वथा व्यवहार्य था । हिसा, असत्य, स्तेग और परिग्रह का त्याग करना' - यह चातुर्याम सवरवाद' उनका धर्म था । इस धर्म का उन्होने भारत भर में प्रचार किया। प्राचीन भारत में अहिंसा को सुव्यवस्थित रूप देने का यह सर्वप्रथम उदाहरण है । प्राचीन भारत में अरण्य में रहने वाले ऋषि-मुनियों के प्राचरण में जो हिसा थी, उसे व्यवहार मे विशेष स्थान न था । तीन नियमो के सहयोग से अहिसा व्यवहारिक बनी, सामाजिक बनी । भगवान् पार्श्वनाथ ने जगली जातियों तक को अहिसक बनाया । आपने ७० वर्ष तक अहिसा का प्रचार किया और १०० वर्ष की आयु में सम्मेद शिखर पर जाकर ७७७ ई० पू० निर्वाण प्राप्त किया। आपकी पुण्य चिरस्मृति में कृतज्ञ राष्ट्र ने सम्मेद शिखर का नाम 'पारस नाथ हिल' रख दिया है । भगवान् महावीर के माता-पिता भी पार्श्वनुयायी थे । भगवान् पार्श्वनाथ के 'चातुर्याम' का उल्लेख निर्ग्रथों के सम्बन्ध मे बौद्ध पालि ग्रंथो मे मिलता है और जैन आगमो मे भी बौद्ध ग्रथ अग: निकाय चतुक्कनिपात ( वग्ग ५) और उनकी अट्टकथा में उल्लेख है कि गौतम बुद्ध का चाचा 'बप्प शाक्य, निर्ग्रथ श्रावक था । पाश्र्वापत्यो तथा निर्ग्रथ श्रावको के और भी अनेक उदाहरण मिलते है जिनसे निर्ग्रथ धर्म' की सत्ता भगवान् बुद्ध से पूर्व भली-भाँति सिद्ध हो जाती है । ४. चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर. विस्तार के लिए कृपया इसी पुस्तक का अगला अध्याय देखिए ।
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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