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________________ ( ५५ ) देवु चढाय । शिर काट धर्म ए। पूरजो पूरजो करु ए।॥८॥ ओ नर कूरे अरदास, मा जाउं न्यातिला पास। जाय ने कहु खरो ए मा ज्यूमती करोए ॥ ६ ॥ हूँ दुःख पाउ कुंआप, पर बिया ने पाप । तो तू जाणदे ए विश्थामा खाण दे ए ॥ १०॥ खामौ थारा कहग रौ बात, मो अपराधी साख्यात । खिमात्र सही ए । ढीलो सुकू नहीं ए॥११॥ इतरे गुन्हे राय, अलगा मेल्या न जाय। खिण एक जाण न दे ए। विश्रामा खाण न दे ए ॥१॥ थारे दादे केलव्या कूर, संच्या पापरा पूर । जाय नरकां पड़यो ए जजौरां जड़यो ए॥ १३ ॥ पत्य सागर रौ मार । बिण भुगत्यां निरधार । छुट को नहीं ए। इम जाणे सही ए ॥ १४ ॥ करे परमा धामी घात। ज्यांरी पन रे जात । मार घणो पड़े ए। ढौल नहीं करे ए॥ १५ ॥ जाण कहु जाय, पिण दादो न सके बाय । रुखघाला घणा ए। दुःख नरकां तणा ए ॥ १६ ॥ इण विध दश दृष्टन्ते गय । तू सरध जदा जीव काय ॥ फेर जाणे मती ए। भठन बोलारती ए॥ १७॥ ओ दिष्टान्तो दियो मुनिराय । पिण म्हारी न आयो दाय ॥ बुद्ध थारो घणो ए। जुगत मेलण तणी ए ॥ १८ ॥ पिण दादी म्हारी खाम । करतो धरम रो काम ॥ तप क्रिया घणी ए। नवतत्व विध तणौ ए
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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