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________________ ( १२७ ) वको जीव किण ही कालमें हुवे नहीं। ३ पुन्य जीव छै के अजीव है, अजीव छै ते किणन्याय पुन्वते शुभकर्म शुभ कर्मते पुगल छै पुगल ते अजीव छ। ४ पाप जीव छै के अजीव छै, अजीव छै। किणन्याय पाप ते अशुभ कर्म पुगल छै पुगल ते अजीव छ। ५ आलव जीव छै के अजीव छै जीव छ, ते किण न्याय शुभ अशुस कर्म ग्रह ते आस्रव छै कर्म यह ते जीव ही छै। ६ संवर जीवके अजीव, जीव छै ते किणन्याय कर्म रोके ते जीव हो छ । ७ निर्जरा जीवके अजीव, जीव है किगन्याय कर्म तोड़े ते जीव छ। ८ बंध जीवके अजीव छै, अजीव छै ते किणन्याय . शुभ अशुभ कर्मको बंध अजीव छ । __६ मोक्ष जीवके अजीव, जीव है, किणन्याय समस्त कर्म लूकावे ते मोक्ष जीव छ । ॥ लड़ी पांचवीं जीव चोरके साहूकार ॥ १. जीव चारक साहूकार, दोन छै किणन्याय
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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