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________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग। तातें परम बखान, परमेष्ठी के गुण कहूं ॥ राग द्वेषयुत देव, माने हिंसाधर्म पुनि।। सग्रन्थिनि की सेव, सो मिथ्याती जग भ्रमें॥ मर्थ-दयामय जैन धर्म को प्रकाश करने वाले श्रीअरहंतदेव मौर परिग्रह रहित गुरु को मैं नमस्कार कई अन्य (देवादिक) को नहीं ।। क्योंकि विना गुणोंको पहिवानके समस्त अच्छी बुरीवस्तु घरावर मालूम होती है इस लिये पंचपरमेष्ठि को परमोत्कृष्ट जानकर मैं उनके गण वर्णन कर्क हूं ॥ जो राग द्वेष युक्त देव और हिंसारूप धर्म के मानने वाले हैं भौर परिग्रह सहित गुरु की सेवा करते हैं वह मिथ्याती जगत में भ्रमें हैं। __ अथ अहंत के ४६ मल गुण (दोहा) चौंतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनन्त चतुष्टय गुण सहित, छीयालीसों पाठ ॥१॥. . अर्थ-३४ अतिशय प्रातिहार्य ४ अनन्तचतुष्टय यह अस्तके ४क्ष्मूलगुण होते हैं ३४ अतिशय । दोहा। जन्में दश अतिशय सहित, दश भए केवल ज्ञान। चौदह अतिशय देवकृत, सब चौंतीस प्रमान ॥२॥ ___ अर्थ-१० अतिशय संयुक्त जन्मते हैं १० केवल ज्ञान होने पर होते हैं १४ देव कृत होते हैं महंत के यह ३४ अतिशय होते हैं । जन्म के १० अतिशय । दोहा। अतिसुरूप सुगन्ध तन, नाहिं पसेव निहार । प्रियहित वचन अतौल बल, रुधिर श्वेत आकार ॥३॥ लक्षण सहस अरु आठतन, समचतुष्कसंठान । बज्रवृषभ नाराच युत, ये जन्मत दश जान ॥ ४ ॥ जर्थ-१ अत्यन्त सुन्दर शरीर; २ भतिसुगन्धमय शरीर, ३ पसेव रहित
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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