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________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग अथ पंचपरमेष्ठि के १४३ मल गण। गाथा। अरहता छिय्याला सिद्धा अठ्ठव सूर छत्तीसा । उवज्झायापणबीसा, साहणं होंति अडवीसा ॥ मर्थ-अरहंत के गुण ४६ सिद्ध के गुण ८ आचार्य के गुण ३६ उपाध्याय के गुण २५ साधु के गुण २८ होते हैं। नोट-वहां बालकों को यह समझ लेना चाहिये कि पंचपरमेष्ठि के इन १४३ मूलगुणों के सिवाय और भी अनेक गुण होते हैं, पांचौ परमेष्ठि के गुणों को तो क्या ठिकाना सिरफ मुनि के ही शास्त्र में ८४ लाख गुणों का होना लिखा है । सो यहां इस का मतलब यह समझ लेना चाहिये कि गुण दो प्रकार के होते हैं एक मूल गुण (लाजमी) (compulsary) दूसरे उत्तर गुण (अखत्यारी) (optional) होते हैं सो मूल गुण उसको कहते हैं जो उनमें वह जरूर होवें और उत्तर गुण उसको कहते हैं कि वह उनमें होवे भो या उनमें से कुछ न भी होवें उतर गुण उनके शरीरको ताकत और भावों की निलमता के अनुसार होते हैं और मूलगुणों में शरीर को ताकत और भावोंकी दृढ़ताका विचार नहीं यह तो उनमें होने जरूरी लाजमी हैं इन विना उनका पद दूषित है । सो कवि बुधजन जो ने इन १५३ मूल गुणों को ३६ छन्दों में . ग्रन्थ कर उस पाठका नाम इष्ट-छतीलो रक्खा है सो वह १४३ मूल गुण अर्थ सहित , हम यहां लिखते हैं ताकि सर्व बालक उसका मतलब समझ सके। इष्ट छत्तीसी। मंगलाचरण । सोरठा। प्रणाम श्रीअरहत, दया कथित जिन धर्म को। गुरु निग्रंथ महन्त, अवर न मानं सर्वथा ॥ विनगुण की पहिचान, जाने वस्तु समानता।
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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