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________________ जैनपालगुटका प्रथम भाग। हिस्सा माखिर तक धर्म द्रव्य है सी मोक्ष में उसके आखिरतक यह मारमा बल्ल जाता है उससे परे अलोकाकाश है उसमें धर्म द्रव्य नहीं इस वास्ते यह मारमा लोक में हो जाता है धर्म द्रव्य उसे कहते हैं जो गमन करने में सहकारी कारणहो जिस के जरिये से एक स्थान से दूसरी जगह पहुंचे, मोक्ष नाम इस स्थान का भी है जहां पर यह आत्मा को ले रहित हो कर जाकर तिष्टता है वह स्थान मोक्ष इस कारण से कहलाता है कि जो जीव तीन लोक में हैं सबकों के वश हैं परंतु को करि मुक्ति, जीप वहां चले गये उन जीवो पर इन काँका धेश नहीं चलता इस लिये उन मुक्तिजीवों के आधाररूप स्थानके होने से वह स्थान मोक्ष कहलाता है वह छुटा हुवा स्थान (माजाद स्थानो तीनलोक के मध्य जो चलेय के भाकार प्रसनाडी है उसमें अपरला हिस्सा है उस जगह बही भारमा जाते है जो की से रहित हो जाते हैं लो जवतक इस संसारी जीव को सम्यग् दर्शन सम्याशानं सम्यक चारित्र यह तीनों इक प्राप्त न हो तबतक इसे कभी भी मोक्षको प्राप्ति नहीं होती 'यदिन में से दो की प्राप्ति न होजावे तब तक भी मोक्ष नहीं होती तीनों के इकडे प्राप्त होने पर ही मोक्ष हो सकती है जब यह जीव कर्मों से छुटगया अथात कर्ममलसे • रहित होगया तब इस का नाम जीव नहीं रहता क्योंकि जीव उसको कहते हैं जो जीये, जीवना उस को कहते हैं जो मरने से पहली स्थिर रहने वाली अवस्था है चूंकि संसारी जोव मरते भी है और फिर जन्मते मोहैं इसलिये मरनेकी अपेक्षा संसारी जीव • को जीय कहते हैं सिद्ध (मोक्षमात्मा) कमी मरते नहीं इसलिये. उन का नाम जीव , संहासे रहित है यह सिद्ध या परमात्मा कहलाते हैं परमात्मा का अर्थ:परम कहिये । श्रेष्ठ, प्रधान, महत नेक, सरवार, बड़ा असलो, पाक, पवित्र है सो परमात्मा का . :अर्थ पवित्र आत्मा श्रेष्ठ मात्मा सब आत्माओं में प्रधान सर्व में उत्कृष्ट मात्मा है ।। नोट-इन सात तत्वो का स्वरूप, हर एक जैनी को समझ लेना चाहिये और समझकर जिससे नये कौ का मागमन न हो और पिछले कमों की निर्जरा हो उस . रूप परिवर्तन करना चाहिये ताकि सर्व कर्मों से छट जावे कर्मों से छट जाने से इस .. संसार के दुःखों से बच जावे.. इति तत्वका वर्णन सम्पूर्णम् ॥ .... '.. जैन पर्व के दिन।.. .. : . हर एक मास में दो अष्टमी'दो चतुर्दशी यह चार दिन जैन ग्रंथों में पर्व के माने हैन दिनों में जैनी प्रत रखते हैं, जो प्रत नहीं रख सकते वह इन दिनों में भिमस्य नहीं खाते हरी नहीं खाते रात्रीको पानी नहीं पीते दुनियादारी के पाप कार्यों का स्वागत कर धर्म ध्यान सेवन करते हैं।' '.:
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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