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________________ ८४ प्राचार्य चरितावली सदा के लिये विगय मात्र का त्याग कर दिया । यह यात्मार्थीपन का वेजोड उदाहरण है ।।१४४॥ लावरणी॥ सोमसुन्दर ने शिथिल देख यतिगरण को, किये नियम शासन उत्थान करण को। चौदह सौ सत्तावन समय पिछानो, यत्न करत भी बढ़ी चरण की हानो । सदी सोलवी की घटना कहुं सारी॥ लेकर० ॥१४५।। अर्थ --प्राचार्य सोमसुन्दर सूरि के समय मे दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रचार वढ़ा हुआ था । ईडर मे तो दिगंवर भट्टारको की गद्दी भी कायम हो चुकी थी । जव सोमसुन्दर को प्राचार्य पद प्रदान किया तो उन्होने यतिगत के प्राचार की शिथिलता देख कर अपने साधु समुदाय को शिथिलाचार से बचाने के लिये कुछ नियम मर्यादा-पट्ट के रूप से स्थिर किये। - संवत् १४५७ के लगभग उन्होने संघरक्षा का यह प्रयत्न किया, फिर भी चरित्र-धर्म की समय समय पर हानि होती रही। अब सोलहवी सदी की कुछ घटनाए प्रस्तुत की जा रही है:-1॥१४५।। लावरणी॥ अष्टोत्तर पनरह मे लोका प्राया, दयाधर्म ही सच्चा मत बतलाया। पूजा पोषा दानादिक नहीं माने, गच्छवासि मिल विविध दोष दे छाने । देव हमारे वीतराग अविकारी ॥ लेकर० ॥१४६।। अर्थः-संवत् १५०८ मे लोकाशाह प्रकट हुआ। उसने दया धर्म को ही सच्चा धर्म बतलाया।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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