SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचार्य चरितावली ८५ गच्छवासी लोग उनके विविध दोप बतलाते और उनका विरोध करते । समाज में यह भ्रान्ति फैलाई जाने लगी कि लोकाशाह पूजा, पौपध और दान आदि नही मानता। विरोध भाव से इस प्रकार के कई दोप विरोधियो द्वारा लगाये गये किन्तु वास्तव मे लोकाशाह धर्म का या व्रत का नहीं अपितु धर्म विरोधी ढोग-याडम्बर का निषेध करता था। उसका मत था कि हमारे देव वीतराग एव अविकारी है, अतः उनकी पूजा भी उनके स्वरूपानुकूल ही आडम्बर रहित होनी चाहिये ।।१४६।। लावरणी।। कहे विरोधी व्रत पोषा नहीं माने, पर यह कहना है जनगण बहकाने । क्रियावाद में प्राइम्बर जो छाया, लोका ने उसको ही दूर हटाया। कबीर ने भी की यही ललकारी ।। लेकर ॥१४७॥ अर्थः-विरोधी लोगो का यह कथन कि लोकाशाह व्रत, पौषध यादि को नहीं मानता, मात्र धर्म प्रेमो जनसमुदाय को वहकाने के लिये था । वास्तव मे लोकाशाह ने व्रत या तप का नहीं किन्तु धर्म मे आये हुए वाह्य क्रियावाद यानि आडम्वर आदि विकारो का ही विरोध किया था। जैसा कि कवीर ने भी अपने समय में बढ़ते हुए मूर्तिपूजा के विकारो के लिये जन समुदाय को ललकारा था। यही बात लोकाशाह ने भी कही थी । वीतराग के स्वरूपानुकूल निर्दोष भक्ति से उनका कोई विरोध नही था ॥१४७॥ उनका मन्तव्य इस प्रकार है . लावरणी। दया, दान, पूजा, पौषध की करणी, प्राडम्बर उजमरणा की नही वरणी।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy