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________________ ३२ : जैन आचार अति अल्प है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति को मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब कुछ क्षणो के लिए सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता की अनुभूति होती है-तत्त्वदृष्टि प्राप्त होती है-सच्ची श्रद्धा प्रकट होती है तब उसकी जो अवस्था होती है उसे सास्वादन-सम्यगदृष्टि गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान मे स्थित आत्मा तुरन्त मोहोदय के कारण सम्यक्त्व से गिर कर पुनः मिथ्यात्व मे प्रविष्ट हो जाती है। इस अवस्था में सम्यक्त्व का अति अल्पकालीन आस्वादन होने के कारण इसे स्वास्वादन-सम्यगदृष्टि नाम दिया गया है। इसमे आत्मा को सम्यक्त्व का केवल स्वाद चखने को मिलता है, पूरा रस प्राप्त नहीं होता। मिश्र दृष्टि: तृतीय गुणस्थान आत्मा की वह मिश्रित अवस्था है जिसमे न केवल सम्यग्दृष्टि होती है, न केवल मिथ्यादृष्टि। इसमे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मिश्रित अवस्था में होते है जिसके कारण आत्मा मे तत्त्वातत्त्व का यथार्थ विवेक करने की क्षमता नही रह जाती। वह तत्त्व को तत्त्व समझने के साथ ही अतत्त्व को भी तत्त्व समझने लगती है। इस प्रकार तृतीय गुणस्थान मे व्यक्ति की विवेकशक्ति पूर्ण विकसित नहीं होती। यह अवस्था अधिक लंबे काल तक नही चलती। इसमे स्थित आत्मा शीघ्र ही अपनी तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार या तो मिथ्यात्व-अवस्था को प्राप्त हो जाती है या सम्यक्त्व-अवस्था को । इस गुणस्थान का नाम मिश्र अर्थात् सम्यक-मिथ्यादृष्टि है।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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