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________________ जैन दृष्टि ले चारित्र-विकास : ३१ मोह मुख्यतया दो रूपो में उपलब्ध होता है . दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय आत्मा को यथार्थतासम्यक्त्व-विवेकशीलता से दूर रखता है। चारित्र मोहनीय आत्मा को विवेकयुक्त आचरण अर्थात् प्रवृत्ति नहीं करने देता। दर्शन मोहनीय के कारण व्यक्ति की भावना, विचार, दृष्टि, चिन्तन अथवा श्रद्धा सम्यक नही हो पाती-सही नही बन पाती । सम्यक दृष्टि की उपस्थिति मे भी चारित्र मोहनीय के कारण व्यक्ति का क्रियाकलाप सम्यक् अर्थात् निर्दोष नहीं हो पाता। इस प्रकार मोह का आवरण ऐसा है जो व्यक्ति को न तो सम्यक विचार प्राप्त करने देता है और न उसे सम्यक् आचार की ओर ही प्रवृत्त होने देता है। मिथ्या दृष्टि: प्रथम गुणस्थान का नाम दर्शन मोहनीय के ही आधार पर मिथ्यादृष्टि रखा गया है। यह आत्मा की अधस्तम अवस्था है। इसमे मोह की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति विलकुल गिरी हुई होती है। वह मिथ्या दृष्टि अर्थात् विपरीत श्रद्धा के कारण राग-द्वेष के वशीभूत हो आध्यात्मिक किंवा तात्त्विक सुख से वचित रहता है। इस प्रकार इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्या दर्शन अथवा मिथ्या श्रद्धान है। अल्पकालीन सम्यक दृष्टि : द्वितीय गुणस्थान का नाम सास्वादान-सम्यग्दृष्टि अथवा सासादन-सम्यग्दृष्टि अथवा सास्वादन-सम्यग्दृष्टि है। इसका काल
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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