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________________ जैन दृष्टि से चारित्र - विकास : ३३ ग्रंथिभेद व सम्यक् श्रद्धा : मिथ्यात्व - अवस्था मे रही हुई आत्मा अनुकूल संयोगो अर्थात् कारणो की विद्यमानता के कारण मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब विकास की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करती है तव उसमे तीव्रतम राग-द्वेप को किचित् मद करने वाला बलविशेष उत्पन्न होता है । इसे जैन कर्मशास्त्र मे ग्रथिभेद कहा जाता है । ग्रथिभेद का अर्थ है तीव्रतम राग-द्वेष अर्थात् मोहरूप गाँठ का छेदन अर्थात् शिथिलीकरण । ग्रथिभेद का कार्य वडा कठिन होता है । इसके लिए आत्मा को बहुत लंबा सघर्ष करना पडता है । चतुर्थ गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमे मोह की शिथि लता के कारण सम्यक् श्रद्धा अर्थात् सदसद्विवेक तो विद्यमान रहता है किन्तु सम्यक् चारित्र का अभाव होता है । इसमे विचार-शुद्धि को विद्यमानता होते हुए भी आचार-शुद्धि का असद्भाव होता । इस गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है | देशविरति : देशविरत - सम्यग्दृष्टि नामक पांचवे गुणस्थान मे व्यक्ति की आत्मिक शक्ति और विकसित होती है । वह पूर्ण रूप से सम्यक् चारित्र की आराधना तो नही कर पाता किन्तु आशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है । इसी अवस्था मे स्थित व्यक्ति को जैन आचारशास्त्र मे उपासक अथवा श्रावक कहा गया है | श्रावक की आशिक चारित्र साधना अणुव्रत के नाम से प्रसिद्ध है। अणुव्रत का अर्थ है स्थूल, छोटा अथवा आशिक व्रत अर्थात् चारित्र अथवा ३
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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