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________________ १४२ : जैन आचार महानत, पाच समितियाँ, पाच इन्द्रियों का निरोध, छः प्रावश्यक, लोच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त । एकभक्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मुनि सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य मे एक बार भोजन करता है। सूर्यास्त व सूर्योदय के बीच यानी रात्रि मे उसके भोजन का सर्वथा त्याग होता है। दशवकालिक सूत्र के क्षुल्लिकाचार-कथा नामक तृतीय अध्ययन में निर्ग्रन्थो के लिए औद्देशिक भोजन, क्रीत भोजन, आमन्त्रण स्वीकार कर ग्रहण किया हुआ भोजन यावत् रात्रिभोजन का निषेध किया गया है । षड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन मे पाँच महाव्रतो के साथ रात्रिभोजन-विरमण का भी प्रतिपादन किया गया है एवं उसे छठा व्रत कहा गया है। आचारप्रणिधि नामक आठवे अध्ययन मे स्पष्ट कहा गया है कि रात्रिभोजन हिंसादि दोषो का जनक है। अत निर्ग्रन्थ सूर्य के अस्त होने से लेकर सूर्य का उदय होने तक किसी भी प्रकार के आहारादि की मन से भी इच्छा न करे। इस प्रकार जैन आचार-ग्रन्थों मे सर्वविरत के लिए रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध किया गया है। वह आहार, पानी आदि किसी भी वस्तु का रात्रि मे उपभोग नही करता । जैन आचार-शाख अहिंसानत की सम्पूर्ण साधना के लिए रात्रिभोजन का त्याग अनिवार्य मानता है। घडावश्यक : . • मूलाचार आदि दिगम्बर परम्परा के आचार-ग्रन्थों एवं आवश्यक आदि श्वेताम्बर परम्परा के आचार-ग्रन्थों मे सर्वविरत
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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