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________________ श्रमण-धर्म : १४१ दूसरो से नहीं कराता और करने वालों का समर्थन नही करता। वह पूर्णतया अनासक्त एव अकिंचन होता है। इतना ही नही, वह अपने शरीर पर भी ममत्व नही रखता। सयमनिर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्पतम उपकरण अपने पास रखता है उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। उनके खो जाने अथवा नष्ट हो जाने पर उसे शोक नही होता तथा प्राप्त होने पर हर्ष नही होता, वह उन्हें केवल संयम-यात्रा के साधन के रूप में काम मे लेता है। जिस प्रकार वह अपने शरीर का अनासक्त भाव से पालन-पोपण करता है उसी प्रकार अपने उपकरणों का भी निर्मम भाव से रक्षण करता है। ममत्व अथवा आसक्ति आन्तरिक ग्रन्थि है। जो साधक इस ग्रन्थि का छेदन करता है वह निग्रन्थ कहलाता है। सर्वविरत भ्रमण इसी प्रकार का निर्ग्रन्थ होता है। ___अपरिग्रहनत की पाँच भावनाएँ ये हैं : १. श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति राग-द्वेषरहितता अर्थात् अनासक्त भाव, २. चक्षुरिन्द्रिय के विषय रूप के प्रति अनासक्त भाव, ३ घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध के प्रति अनासक्त भाव, ४. रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव, ५ स्पर्शनेन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव । रात्रिभोजन-विरमणवत: वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार के मूलगुणाधिकार नामक प्रथम प्रकरण मे सर्वविरत श्रमण के २८ मूल गुणों का वर्णन है. पाच
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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