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________________ श्रमण-धर्म . १४३ मुनि के लिए षड़ावश्यक अर्थात् छ. आवश्यको का विधान किया गया है। इनके नाम दोनो परम्पराओ मे, एक हैं-अभिन्न है। क्रम की दृष्टि से पांचवें व छठे नाम मे विपर्यय है। दिगम्बर परम्परा। मे इनका क्रम इस प्रकार है . १. सामायिक, २ चतुविशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग। श्वेताम्बर परम्पराभिमत पडावश्यक-क्रम यो है: १ सामायिक, २.,चतुर्विशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५ कायोत्सर्ग, ६ प्रत्याख्यान । ____ जो अवश्य करने योग्य होता है उसे आवश्यक कहते हैं। सामायिक आदि मुनि की प्रतिदिन करने योग्य क्रियाएं हैं अतः इन्हे आवश्यक कहा जाता है। दूसरे शब्दो मे सामायिकादि षडावश्यक निर्ग्रन्थ के नित्यकर्म हैं। इन्हें श्रमण को प्रतिदिन दोनों समय अर्थात् दिन व रात्रि के अन्त मे अवश्य करना होता है। सम को आय करना अर्थात् त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समभाव रखना सामायिक है। जिसकी आत्मा संयम, नियम व तप मे सलीन होती है अर्थात् जो आत्मा को मन, वचन, व काय की पापपूर्ण प्रवत्तियो से हटाकर निरव व्यापार मे प्रवृत्त करता है उसे सामायिक की प्राप्ति होती है। सामायिक मे बाह्य दृष्टि का त्यागकर अन्तष्टि अपनाई जाती है-बहिर्मुखी प्रवृत्ति त्यागकर, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति स्वीकार की जाती है। सामायिक समस्त प्राध्यात्मिक,साधनाओ की आधारशिला है। जब साधक सर्व सावध योग से विरत होता है, छ काय के जीवो के प्रति संयत होता है, मन-वचन-काय को नियन्त्रित करता है, आत्म
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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