SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ७१ ] 1 सकता । नय, निक्षेप, प्रमाण, सप्तभंगी और भी कई ऐसे विषय हैं कि जिनका वर्णन आवश्यकीय होने पर भी मुझे छोड देना पडा है । मेरा अनुरोध है कि विद्वानों को इन्हें जानने के लिये सन्मतितर्क, प्रमाणपरिभाषा, सप्तभंगीतरंगिणी, रत्नाकरावतारिका, स्याद्वादमंजरी तथा इनके सिवाय जीवाभिगम, पन्नत्रणा, ठाणांग, आचारांग और भगवती आदि सूत्रों को अवश्य अवलोकन करना चाहिये । अन्त मे, आपने मेरा वक्तव्य शान्ति पूर्वक श्रवण किया है इसके लिये मैं आपका आभार मानता हूँ। और साथ ही मै आप से अनुरोध भी करता हूँ कि जो मैंने समभाव से मुक्ति प्राप्त करने का आपके सामने अभी प्रतिपादन किया है, इस समभाव के सिद्धान्त को प्राप्त कर आप सब मोक्षसुख के भोक्ता बनें। इतना अन्त करण से चाहता हुआ अपने इस निबन्ध को समाप्त करता हूँ । ॐ शान्ति शान्तिः शान्तिः ।
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy