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________________ [ ४८ ] में कहें तो राग-द्वेष की चिकनाहट कर्म को खींचती है, किन्तु कर्म के अभाव में यह चिकनाहट रहती ही नहीं है। पांच कारण___ उपर्युक्त कर्म विवेचन से आप भलीभांति समझ गये होंगे कि जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध होते हुए भी पुरुषार्थ द्वारा इन कर्मों का क्षय हो सकता है, सर्वथा क्षय किया जा सकता है। कई महानुभाव समझने मे भूल करते है कि जैनधर्म मे मात्र कर्म की ही प्रधानता है, जैनलोग कर्म के ऊपर ही विश्वास रख कर बैठे रहते हैं। परन्तु, महानुभावो। यह वात नहीं है। जैनसिद्धान्त मे जैसे कर्म का प्रतिपादन किया गया है, वैसे ही पुरुषार्थ का भी प्रतिपादन किया गया है। कर्मों को हटाने के-दूर करने के अनेक उपाय ज्ञान, ध्यान, तप, जप, संयमादि बतलाये गये हैं। यदि मात्र कर्म पर ही भरोसा रख कर बैठे रहने का आदेश होता, तो आज जैनों में जो उप्र तपस्या, अद्वितीय त्याग-वैराग्य, महाकष्टसाध्य संयम आदि दिखलाई देते हैं वे कदापि न होते। इसलिये स्मरण में रखना चाहिये कि जैनधर्म में केवल कर्म का ही प्राधान्य नहीं है, परन्तु कर्म के साथ पुरुषार्थ को भी उतने ही दर्जे तक माना है। हां, "प्राणी जैसे जैसे कर्म करता है वैसे वैसे फलों की प्राप्ति करता है। इस बात की उद्घोपणा जरूर की जाती है, तथा मेरी धारणानुसार इस बात मे कोई भी दर्शनकार असहमत नहीं हो सकता।
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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