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________________ [ ४७ ] को नये नये कर्म लगते रहते है और पुराने कम छूटते जाते हैं। अर्थात् कोई भी कर्म आत्मा के साथ अनादि संयुक्त नहीं है किन्तु जुदा जुदा समय जुदा जुदा कर्मों का प्रवाह अनादि काल से चला आता है। एवं जब यह बात निश्चित है कि पुराने कर्म छूटते रहते हैं और नये कर्म लगते रहते है तब यह समझना कुछ भी कठिन नहीं है कि कोई समय ऐसा भी आता है जब कि आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त भी हो जाती है। हम अनेक कार्यों में अनुभव कर सकते है कि एक वस्तु एक स्थान में अधिक होती है तो दूसरे स्थान मे कम होती है। इस पर से यह बात निश्चित है कि किसी स्थान में इस वस्तु का सर्वथा अभाव भी होगा। जैसे जैसे सामग्री की प्रबलता अधिक प्राप्त होती जाय वैसे वैसे उस कार्य मे अधिक सफलता मिलती रहती है। कर्मक्षय के प्रवल कारण प्राप्त होने पर सर्वथा कर्मक्षय भी हो सकता है। जैसे सोने और मिट्टी का संबन्ध अनादि काल का होता है, परन्तु वही मिट्टी प्रयत्न करने से सोने से सर्वथा दूर की जा सकती है और स्वच्छ सोना अलग हो सकता है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म का संवन्ध अनादि काल से होने पर भी प्रयत्न करने से वह सर्वथा छूट सकता है। और जव कर्म सर्वथा छूट जाता है तब इसके बाद जीव पर नये कर्म नहीं आते, क्योंकि 'कर्म' ही कर्म को लाता है अथवा दूसरे शब्दों
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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