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________________ जयशंकर 'प्रसाद' कला का विकास 'प्रसाद' की नाट्य-कला का पूर्ण और प्रशंसनीय विकास 'स्कन्दगुप्त', 'चन्द्रगुप्त' और 'ध्र वस्वामिनी' में पाया जाता है । 'राज्यश्री' उनकी प्रथम रचना होते हुए भी अन्य पिछली रचनाओं से अच्छी है। 'विशाख' 'अजातशत्रु' तथा 'जनमेजय का नागयज्ञ' प्रयोग-युग की रचनाए हैं। इनमें 'प्रसाद' की कला कुछ भी स्थिर नहीं रह पाती। नाटककार जैसे अपनी कॉपती कलम को निश्चित नाटक-कला के सिद्धान्तों में बाँधने की चेष्टा में है। इन नाटकों पर संस्कृत और उस युग की पारसी नाटकमण्डलियों की नाट्यकला का प्रभाव स्पष्ट है। परन्तु वह स्वतंत्र भी है और अपनी निजी कला और विशेषताओं से अधिक सम्पन्न है ।' स्वगत और पद्यात्मक संवादों को हम संस्कृत का भी प्रभाव मान सकते हैं और उस समय की नाट्य-कला का भी। प्रसाद जी के सभी नाटक स्वगत से पूर्ण हैं । यह स्वगत अंतिम तीन नाटकों-चन्द्रगुप्त, स्कन्दगप्त ध्र वस्वामिनी-में भ६ रूप में नहीं आया। 'राज्यश्री' में सुरमा देवगुप्त के सम्मुख ही स्वगत भाषण करती है और देवगुप्त भी सुरमा के सामने ही । देवगुप्त निकट खड़ा है। सुरमा (स्वगत) कहती है-“यह कैसा विलक्षण पुरुष है ! उत्तर देते भी नहीं बनता, क्या करूँ ?' 'जनमेजय का नाग यज्ञ' मे पहले अंक, दूसरे दृश्य में उत्तङ्क स्वगत-भाषण करते हुए प्रवेश करता है। यह स्वगत भी बिलकुल अस्वाभाविक है। 'अजातशत्र' में प्रथम अंक, पाँचवें दृश्य में मागधी स्वगत भाषण करते हुए प्रवेश करती है। इसी प्रकार छठे ६श्य में जीवक। तीसरे अंक, नर्वे दृश्य में बिंबसार भी लम्बे स्वगत के साथ प्रकट होता है। विरुद्धक, श्यामा, बाजिरा के भी स्वगत कथनों से नाटक बोभ इस स्वगत का भद्दा रूप धीरे-धीरे 'स्कन्दगुप्त' 'चन्द्रगुप्त' और 'ध्र व स्वामिनी' में कुछ स्वाभाविक बन गया है। स्वगतों की संख्या भी बहुत ही कम हो गई है। इनमें स्वगतों का रूप बहुत श्रावेशात्मक स्थिति, मनोवैज्ञानिक परिस्थिति या किसी भारी उद्वेग को प्रकट करने का साधन बन गया है। 'स्कन्दगुप्त' के प्रथम अङ्क, प्रथम दृश्य में स्कन्दगुप्त स्वगतभाषण करते हुए प्रकट होता है । पर यह न तो लम्बा भाषण है, न अस्वाभाविक नाटकीय स्थिति के अनुकूल है। किन्तु मातृगुप्त के स्वगत पागल के प्रताप ही मालूम होते हैं। तृतीय अंक के दूसरे दृश्य में भी स्कन्दगुप्त स्वगत-भाषण करते हुए ही प्रकट हुआ है। यह यद्यपि लम्बा है तो भी अत्यन्त
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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