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________________ ८२ हिन्दी के नाटककार कर्मयोगी, राष्ट्र-निर्माता भी नियति-सुन्दरी की भवों के बलों को गिनते हुए पाये जाते हैं। प्रसाद का यह नियतिवाद उनकी सभी रचनाओं में स्पष्ट है। पर नियतिवाद किसी भी पात्र की प्रगति में रोड़ा नहीं बनता, किसी के भी खौलते रक्त को ठण्डा नहीं कर पाता, किसी को भी निष्फल-प्रयत्न उद्योग-शिथिल नहीं बनाता–सभी पात्र नियति की शक्ति मानते हुए भी सचेष्ट हैं-कर्म-रत हैं। नियतिवाद और कर्मयोग का प्रसाद ने सुन्दर सामंजस्य कर दिया है । और नियति केवल परम्परागत कहने की बात ही रह गई है। जनमेजय सचेष्ट है । "पालस्य मुझे अकर्मण्य नहीं बना सकता" कहकर वह नागजाति का आतंक मिटाने में सन्नद्ध होता है। चन्द्रगप्त 'मरण से भी अधिक भयानक को आलिंगन करने के लिए प्रस्तुत है।" और स्कन्दगुप्त आर्यावर्त को हूणों के अातंक से मुक्त करके ही दम लेता है। चाणक्य आर्यावर्त में नवीन राष्ट्र का निर्माण कर देता है। क्योंकि 'प्रसाद' की दार्शनिकता किसी सुदूर-मनुष्य की पहुंच से दूर स्वर्ग के पीछे पागल हो, इस धरती की उपेक्षा नहीं करती । उसका स्कन्दगुप्त विश्वास करता है --- "इसी पृथ्वी को स्वर्ग होना है, इसी पर देवताओं का निवास होगा, विश्वनियंता का ऐसा ही उद्देश्य मुझे विदित होता है।" मंगल और अमंगल का द्वंद्व सदा होता रहता है, ऐसा लेखक का विचार है। उसने दो विपरीत चरित्रों वाले पात्रों के संघर्ष में ऐसा प्रकट किया है, पर अन्त में मंगल की विजय होती है और अशुभ के भी शुभ बनने का मार्ग खुलता है, ऐसी लेखक की आस्था है। राज्यश्री और विकटघोष, देवसेना और विजया, प्रपंचबुद्धि और स्कन्दगप्त, अलका और प्राम्भीक रामगुप्त और चन्द्रगुप्त (ध्रुवस्वामिनी में) का संघर्ष स्पष्ट है। पर अन्त में राज्यश्री, देवसेना, स्कन्दगुप्त, अलका, चन्द्रगुप्त की विजय दिखाकर लेग्वक ने मंगल के उदय का सूत्रपात किया है। साथ ही अशुभ और पतित को अपने सुधार का अवसर देकर लेखक ने कल्याण के देवता की प्रतिष्ठा की है। शुभ-अशुभ, मंगल-अमंगल, सुन्दर-असुन्दर के संघर्ष और अन्त में उनके सामंजस्य में लेखक ने विश्व-कल्याण की झाँकी दिवाई है। देवसेना कहती है-"पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का पालोचक है दुःख, पुण्य की कसौटी है पाप।" बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व से उदासीन रहकर इसका उपभोग करना और धरा पर करुणा की वर्षा करना ही मानव-जीवन का सबसे बड़ा हित
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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