SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फुटकर ही होना पड़ेगा। हाँ, वर्तमान रंगीन वातावरण और जीवन के चित्र ही अधिक मात्रा में मिल जायंगे । चन्द्रगुप्त जी के नाटकों में महान् सृजन या गहन जीवन-विश्लेषण मिलना दुर्लभ है । सशक्त और अन्तर्भेदी दृष्टि का भी इनमें अभाव है। 'अशोक' और 'रेवा' दोनों की ही कथावस्तु में जटिलता है। पर चरित्रचित्रण में लेखक को सफलता मिली है। 'अशोक' में कल्पना का प्राधान्य होने पर भी ऐतिहासिकता 'रेवा' से अधिक मिलेगी। रेवा' का केवल आधार ही ऐतिहासिक है, शेष सभी ढाँचा काल्पनिक है। 'अशोक' में भी अनैतिहासिक बौद्ध ग्रन्थों की कपोल-कल्पित बातों को ही आधार मान लिया गया है। वातावरण की दृष्टि से चन्द्रगुप्त जी करुण वातावरण उपस्थित करने में अत्यन्त पटु हैं । वह एक तो प्रतीक-पात्रों की सृष्टि करके और दूसरे सांकेतिक दृश्य उपस्थित करके करुणा की धारा बहा देते हैं। 'अशोक' में प्रारम्भ के कई दृश्य केवल करुणा का धुंधलापन छा देने के लिए ही हैं। अशोक द्वारा चण्डगिरी को सुमन के वध की आज्ञा दिया जाना और चील का हल-हल कर उड़ते दिखाई देना, वातावरण को अत्यन्त आतंककारी बना देता है-भय से रोमांच खड़े हो जाते हैं। सुमन के वध का दृश्य भी हृदय-विदारक है। रेवा' में भी सघन और करुणा के धुंधले बादल मंडरा रहे हैं । वातावरण के लिए अलौकिकता से भी यह सहायता लेते हैं जैसे 'अशोक' में कापालिक की भविष्य-वाणी और रेवा' में पुजारी की। चरित्र-चित्रण की दृष्टि से शीला (सुमन की प्रस्तावित पत्नी), चण्डगिरी (अशोक का सेनापति) और अशोक शक्तिशाली चरित्र हैं। चण्डगिरी दानव और रक्त-पिपासु होते हुए भी मानवता की अन्तर्धारा से गीला है और शीला अन्तद्वन्द्व की चपेटों में छटपटाती एक मुग्धा नारी । अशोक महत्त्वाकांक्षा का सबल प्रतीक है। रेवा' में रेवा का करुणा-सिक्त कोमल व्यक्तित्व बहुत ही प्यारा है और यशोवर्मा का सर न शोलबान चरित्र भी बहुत प्यारा लगता है। __चन्द्रगुप्त जी ने नाटका में टैकनीक के नये प्रयोग भी किये हैं। पर ये प्रयोग रंगमंच पर काफी गड़बड़ उत्पन्न करेंगे । अन्तदृश्य ( दृश्य के भीतर दृश्य ) फिल्म में तो सफलतापूर्वक दिखाया जा सकता है, पर रङ्गमंच पर उसका दिखाया जाना सम्भव नहीं। इसी प्रकार 'रेवा' का प्रथम दृश्य भी असम्भव है। एक टूटे हुए विशाल जल-पोत का सागर के वक्ष पर तैरते हुए दिखाया जाना रङ्गमंच पर तो असम्भव है। कई दृश्य 'अशोक' में भी व्यर्थ हैं और रेवा' में भी। उनको निकालकर भी नाटक स्वस्थ और पूर्ण रह सकते हैं। 'अशोक' से अधिक रेवा' में लेखक सफल हुआ है।
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy