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________________ उपेन्द्रनाथ 'अश्क' २२१ इतिहास-सम्मत भारतीय सामन्त-युग के हैं। इस सामन्त-युग के पात्रों में एक नैतिक आदर्शवादिता, कुल-गौरव और व्यक्तिगत अहं का प्राधान्य है। राणा लक्षसिंह मेवाड़ के अधिपति हैं और चण्ड युवराज । 'जय-पराजय' में प्रेमी के नाटकों के समान मेवाड़ पर बाह्य शत्रुओं का आक्रमण नहीं है, जो वीरता और आत्म-बलिदान का अहं बहुत उभरे रूप में प्राता, फिर भी चण्ड का अधिकार त्यागकर आजीवन अविवाहित रहने का प्रण एक नैतिक आदर्शवादी कठोर अहं का प्रमाण है यह अहं हंसाबाई में भी विकसित होता है, रानी तारा में भी और रणमल में भी । 'जय-पराजय' की बुनियाद इसी अहं पर खड़ी हुई और इसी अहं की तृप्ति में 'जय पराजय' का खेल समाप्त हुवा। ___अश्क के चरित्रों में सामन्ती युग की नैतिक कठोरता और श्रादर्शवादी अहं होते हुए भी स्वाभाविक विकास है। मानवी चारित्रिक स्वाभाविकता हंसा के चरित्र में सफल रूप में आ गई है । हंसाबाई मेवाड़ाधिपति लक्षसिंह की पत्नी है। चण्ड की विमाता। पर हंसाबाई पहले चण्ड को अपने पति के रूप में ग्रहण कर चुकी है। चण्ड के प्रति उसकी प्रेम-भावना बहुत ही सुन्दर रूप में व्यक्त की गई है। चण्ड पाता है। हंसा कहती है-"मालती तुम मेरे पास रहो, तुम मेरे पास रहो । मेरा दिल धड़क रहा है, मेरा गला सूख रहा है ।" और धीरे-धीरे हंसा का रंग पीला पड़ना-बे-सुध भी हो जाना ! एक अगले दृश्य में वह कहती है, “माँ, नहीं, युवराज मुझे माँ न कहो।" इस एक वाक्य में ही हंसा की कातरता बेबसी और उसकी आशाओं की लाश तड़प रही है। चण्ड द्वारा हंसाबाई की उपेक्षा ही हंसा में अहं और प्रतिशोध का विष बनकर विकसित हुई। भारमली के चरित्र पर भी लेखक ने पर्याप्त परिश्रम किया है। राघवदेव से वह प्रेम करती है। रणमल उसका उपभोग करना चाहता है । वह एक नर्तकी है, तो भी किसी भी कुलवधू से उसकी पवित्रता कम नहीं। और राघवदेव की हत्या का प्रतिशोध उसने रणमज से जो लिया वह उसके चरित्र की दिव्यता को और भी प्रकाश में नहला देता है । रणमल का वध करने के लिए वह उसकी प्रेमिका का अभिनय करती है, उसे मारकर स्वयं भी श्रात्म-हत्या करके उसका चरित्र एक ओर तो प्रसाद की कल्याणी को छूता है और दूसरी ओर मालविका के बलिदान को । __स्वर्ग की झलक' में चरित्रों का द्वन्द्वात्मक चरित्र नहीं मिलेगा और न ही अश्क के अन्य नाटकों में। पर चरित्र के जो रंग-बिरंगे स्पर्श 'अश्क'
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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