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________________ हिन्दी नाटककार है काम-दहन । यह गीत-नाटक है। यह कृषकों द्वारा बसन्त में खेला जाता है और पाठ-आठ रात तक चलता है। इस प्रकार प्रायः सभी दशा में समान रीति और रूप से नाटकों का विकास हुआ । नाटक को विकास-पथ पर प्रेरित करने वाली दो मुख्य धाराए स्पष्ट हैं-धार्मिक रासलीला श्रादि के ढंग के नाच-गानों से पूर्ण नाटक और हास्य-शृङ्गार से पूर्ण लौकिक नाटक । ये नाटक फसलों के पकने, बोये जाने, सफलता-प्राप्ति, सफलता की कामना, बसन्तागमन, वर्षारम्भ आदि के अवसर पर खेले जाया करते थे। भारत में ‘इन्द्रध्वज' और यूरोप में 'मे पोल' (may-pole) ऋतु-पर्व ही हैं। इन्द्रध्वज के उपलक्ष में 'त्रिपुर-दाह' और 'समुद्र-मन्थन' नाटक खेले जाने की कला भी भारतीय साहित्य में आती है। यूनान पर रोम वालों की विजय के बाद यूनानी सभ्यता ने रोम को बहुत प्रभावित किया। यूनानी नाटक भी वहाँ पहुंचे। रोम में भी नाटक रचे और खेले जाने लगे। सिनेका वहाँ का प्रसिद्ध नाटककार हुअा। पर रोम जाकर नाटक का विकास नहीं घोर पतन हुअा। रंगमंच पर उत्पीड़न अत्याचार आदि के भयंकर दृश्य ही नहीं दिखाने जाने लगे ; मृत्यु के दश्यों में दासों का वध भी किया जाने लगा। दृश्यों में अश्लीलतता भी बहुत बढ़ गई । इसने वहाँ नाटक का विनाश कर दिया । समय की गति के साथ-साथनाटक भी विकसित होता गया । समय पाकर वह एक स्वतन्त्र कला बन गया। नाटक ने जब यथार्थ और स्वतन्त्र रूप ग्रहण किया, जब इसका बचपन था, इस पर धर्म का बड़ा प्रभाव रहा । उसीके संरक्षण में नाटक का पालन-पोषण हुआ। प्रारम्भ में ईसा तथा अन्य ईसाई सन्तों के जीवन-सम्बन्धी नाटक ही रचे जाते रहे। इनमें सन्तों के आश्चर्यजनक कार्य, नैतिक और धार्मिक शिक्षा देने वाली घटनाए रहती थीं । ये रहस्य और जादूपूर्ण नाटक (Mistry and Miracle Plays)कहलाते थे। यूनानी नाटकों का अभिनय खुले मैदान में हुआ करता था। वितान तानकर या पट लटकाकर रंगमंच नहीं बनाया जाता था। पट परिवर्तन से विभिन्न दृश्यों का विभाजन नहीं होता था। दो भिन्न दृश्यों या अंकों के बीच सामूहिक गान गाकर अन्तर या विभाजन प्रकट किया जाता था। अभिनेता अपने मुखों को विभिन्न प्रकार के चेहरों या नकाबों से ढके रहते थे। लम्बाई बढ़ाने के लिए वे ऊँची एड़ी के जूते भी पहनते थे। एक नाटक कई रात तक भी चलता था। अभिनय में भाव-प्रदर्शन को अवकाश कहाँ-मुख पर प्रकट होने वाले भावों का प्रश्न ही नहीं उठता।
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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