SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी के नाटककार बीच में ही रंग-संकेत के द्वारा अगरी का कमरा आ जाता है। रघुनाथ, ललिता, अगरी, का वार्तालाप चलता रहता है और फिर अचानक रघुनाथ और अगरी का प्रस्थान कराकर पदी उठाया जाता है। ललिता का कमरा श्रा जाता है । यह इस अंक का तीसरा दृश्य है। तीन अंक तो और भी गड़बड़ हैं। शहर की सड़क से तीसरा अंक प्रारम्भ होता है। सड़क पर महेश जगदीश, घनश्याम बातें कर रहे हैं। अचानक सबका प्रस्थान और पर्दा उठता है। मातृ मंदिर का भवन सामने आ जाता है। यह दूसरा दृश्य समझना चाहिए। मातृ-मंदिर में ही फिर पर्दा उठता है और ऊपर का बड़ा कमरा दिखाई देता है, जहाँ मुनीश्वर, ललिता आदि बातें करते दिखाई देते हैं। यह तीसरा दृश्य समझना चाहिए। राजयोग' भी टैकनीक के इसी रोग से पीड़ित है। पहला अंक प्रारम्भ होता है, शत्रुसूदन के दुमंजिले बंगले से । रघुवंश सिंह का प्रस्थान होता है । गजराज का उसके पीछे जाना, शत्रसूदन का अपने कमरे में थाना और गजराज तथा रघुवंशसिंह बँगले के सामने की सड़क पर बातें करने लगते हैं, सड़क वाला दृश्य दूसरा ही समझना चाहिए। रंग-संकेत द्वारा मिश्रजी ने जो लम्बा-चौड़ा दृश्य खड़ा किया है, वह एक दृश्य में नहीं समा सकता। इसी प्रकार सड़क और बंगले के अन्य दृश्य साथ-साथ दिखाये गए हैं। - दृश्य-विधान-सम्बन्धी टैकनीक का पूर्ण विकास हम 'सिंदूर की होली' और 'वत्सराज' में पाते हैं। इन दोनों नाटकों में भी तीन-तीन अंक हैं और अंक ही दृश्य । अंकों के बीच में अचानक दृश्य नहीं फूट पड़ता, जैसे अन्य नाटकों में । पर 'वत्सराज' में सबसे बड़ा दोष यही टैकनीक हो गया है । इसमें लगभग दस वर्ष का समय तीन अंकों में बाँट दिया गया है । बीच के समय की कल्पना दर्शक को स्वयं करनी होगी। इस नाटक में टैकनीक के शिकंजे में कथा का स्वाभाविक विकास भिंचकर कुलबुला-सा रहा था। ... श्राधुनिक पश्चिमी नाटकों में बाह्य संघर्ष की अपेक्षा भीतरी संघर्ष का अधिक महत्त्व है। भीतरी संवर्ष बाहरी से अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसमें सन्देद नहीं। पर इस महत्व का अर्थ बाहरी संघर्ष का तिरस्कार कभी नहीं समझा जा सकता। बाहरी संघर्ष से ही नाटक में कार्य-व्यापार, गतिशीलता और नाटकीयता आती है। श्राकस्मिकता, कौतूहल और भावी घटना के लिए धड़कनभरी जिज्ञासा भी नाटक के अनिवार्य अंग हैं। मिश्रजी के प्रायः सभी नाटकों में कार्य व्यापार और कथानक की गतिशीलता का अभाव है। कई
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy