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________________ १५६ हिन्दी के नाटककार भरी हैं, उनका सुलझाव भी सबल और बुद्धिगम्य होना चाहिए। यह मिश्र जी कर नहीं पाए। विवाह पर आध्यात्मिक आवरण चढ़ाकर भी हम नहीं देखते, न ही इसे किसी धार्मिक या अगले जीवन के सम्बन्ध से हम जोड़ने के लिए आकुल हैं, पर इसमें व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को हम मुख्य स्थान देते हैं। प्रश्न है, व्यक्ति प्राकृतिक रूप में स्वाधीन रहे, या समाज उसे अनेक बन्धनों की शृङ्खला में बाँधकर श्रात्म-सन्तोष का नशा पिलाकर रखे । 'मुक्ति का रहस्य' और 'राजयोग' की ही बात लीजिए । 'राजयोग' में चम्पा अपनी इच्छा के विरुद्ध शत्र सूदन को दे दी गई । समाज का यह अधिकार-उपभोग ही रहा। अब यदि इसी प्रकार माँ-बाप या समाज की इच्छा पर किसी को भी किसी के गले मढ़ दिया जाय, तो क्या समस्या का हल यही है कि वह परिस्थिति से समझौता करके श्रात्म-सन्तोष करे ? तब तो समस्याएं सुलझने के स्थान में और भी उलझेगी और व्यक्ति का विनाश ही होगा। विवाह, जो आज इतना दूषित ही नहीं, एक सामाजिक अपराध भी बन गया है, इसीलिए तो लड़खड़ा रहा है, कि इसने व्यक्ति की स्वाधीनता को चर लिया है। यही बात 'मुक्ति का रहस्य' में भी है। आशादेवी उमाशंकर को प्यार करती है और उसे प्राप्त करने के लिए उसने उमाशंकर की पत्नी को विष देकर मारने का भी जघन्य कार्य किया। वहीं त्रिभुवननाथ के द्वारा उपभोग की जाती है। इसी विश्वास पर सम्भवतः वह उसके शरीर का इस्तेमाल करता है कि अब यह उमाशंकर के काम की नहीं रही। श्राशादेवी त्रिभुवन को ही अपना पति बना लेती है। इससे तो यही तात्पर्य निकला कि विवश करके, छल-कपट से किसी भी नारी का उपभोग करने से वह उपभोक्ता को मिलती जायगी। ___ दोनों प्रकार के ऐसे सुलझावों से तो समस्या और भी उलझेगी ही। नारी की पवित्रता का वह विश्वास बना ही रहेगा, जिसे बिगाड़कर एक नारी अन्य के काम की न रहेगी। इसका प्रमाण सामने है। पाकिस्तान से आई हिन्दू-लड़कियों के साथ, कोई विवाह करने को तैयार नहीं होता। वे अपवित्र समझी जाती हैं। हाँ, यदि यह मिश्र जी दिखाते कि ग़लती से विवशता के कारण आशादेवी धार्मिक परिभाषानुसार भ्रष्ट हो गई और यह जानने पर भी उमाशंकर उसे स्वीकार कर लेते हैं, तब समस्या का सही हल होता । यह शायद अधिक बुद्धि-सम्मत और व्यक्ति तथा समाज के निर्माण में अधिक सहायक होता । पर किसी भी माटक में वह ऐसा कोई हल उपस्थित नहीं
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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