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________________ १०४ हिन्दी के नाटककार शठनायकों के चरित्र की दुर्जनता, धूर्तता और पाप के दूसरे छोर को जिस प्रकार नायक सदगुणों की खान है, उसी प्रकार शर्वनायक दुगुणों की कीचड़ भरे नाले । 'वरमाला' में राक्षस को शठनायक के रूप में समझना चाहिए । नायिका को उत्पीड़ित करने के प्रयत्न में वह नायक के द्वारा मार दिया जाता है । 'राज-मुकुट' में बनवीर शठनायक है। वह नीच, धूर्त, विश्वास-घाती, प्रबल, अत्याचारी, हत्यारा, हृदय-हीन, निर्दय, पापी-सभी कुछ है। 'अङ्ग र को बेटी' का शठनायक माधव भी छल-कपट, विश्वास-घात, धोखा, धूर्तता, असत्य-भाषण, जालसाजी-सभी प्रकार के नीच कर्म करता है । मोहनदास की जेब से हार चुराना, प्रतिभा को धोखा देते रहना, कितने ही लोगों का धन हड़प कर जाना—यही उसका काम है । सामाजिक नाटकों में भी, पात्र प्रायः एक रंगे हैं-उनके चरित्र में विकास के लक्षण असिक नहीं। जैसा कि कहा गया, पंतजी के नाटकों के पात्रों में चरित्र की विचित्रता, घुटन, परिवर्तनशीलता, अन्तर्वेदना-आत्म-मंथन और संघर्ष अधिक मात्रा में नहीं मिलेंगे । अभिनय का बहुत अधिक ध्यान रखने के कारण यह चरित्रचित्रण गहन न हो सका। पर ऐसी बात नहीं कि वे सभी कम सयल, अस्वाभाविक या व्यक्तित्व-हीन है। उनमें स्वाभाविकता का पर्याप्त विकास है, वे जानदार है, निजी व्यक्तित्व भी लिये हुए हैं और राग-द्वेष की उथलपुथल से प्रभावित और गतिशील भी हैं। लेखक ने ऐसी परिस्थिति भी उपस्थित कर दी है जिससे चरित्रों में परिवर्तन आया है उनका विकास हुश्रा है और वे अधिक वास्तविक मनुप्य बन गए हैं। ___'वरमाला' की वैशालिनी अपने उपवन में आये प्रवीक्षित में कहती है "तुम तीनों लोक जीत सकते हो, पर मेरे हृदय का शतांश भी नहीं" और वह उससे घृणा भी करती है। "तुम मुझसे प्रेम नहीं करती ?" अवीक्षित ने पूछा । "प्रेम करती हूँ, लेकिन तुमसे नहीं, तुम्हारी घृणा से ।" वैशालिनी बोली । वैशालिनी अपने प्रेमी प्रवीक्षित से घृणा करती है। पर जब शत्रुसेना अकेला पाकर अवीक्षित पर आक्रमण करती है, तो वह अपनी कटार उसे देते हुए कहती है, "उठो, लो यह कटार लो, अब मुझे प्रात्म-हत्या करने की कोई आवश्यकता नहीं। जाओ, शत्रुओं का संहार करो। मेरा प्रेम तुम्हारा सहायक हो।" घृणा का प्रेम में बदल जाना परिस्थिति के अनुसार बहुत ही स्वाभाविक हुश्रा है।
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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