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________________ ४८ ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग चतुर्भुजोंकी समष्टिके समान है," इस स्थलपर समकोणवाले त्रिभुजके लक्षणमें उल्लिखित तीनों चतुर्भुजोंके सम्बन्धरूपी गुणका निहित रहना नहीं कहा जाता, अथच इसी तत्त्वके विषयमें हमारा ज्ञान निर्विकल्प है, इसमें भी सन्देह नहीं । उक्त प्रश्नका ठीक उत्तर जान पड़ता है यह है कि जहाँ किसी तत्त्वके उल्लिखित द्रव्य और गुणके सम्बन्धमें हमारे पूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, वहाँ उस तत्त्वके सम्बन्धमें हमारा ज्ञान निर्विकल्प होता है, और जहाँ तत्त्वके प्रतिपाद्य द्रव्य और गुणके सम्बन्धमें हमारा ज्ञान अपूर्ण होता है, वहाँ उस तत्त्वके विषयमें हमारा ज्ञान सविकल्प होता है। समकोणवाला त्रिभुज क्या है, उसकी तीनों भुजाओंमें अंकित समवाहु समकोण चतुर्भुज क्या है और उनका परस्पर सम्बन्ध कैसा है, यह हम संपूर्ण रूपसे जानते हैं । इसीसे उसके विषयके उक्त तत्त्वका जो ज्ञान है वह निर्विकल्प है। लेकिन जल और लोहेकी प्रकृति किस प्रकारकी है, और उनकी भीतरी गठन किस तरहकी है, यह हम संपूर्ण रूपसे नहीं जानते, अतएव 'लोहा पानीमें डूबता है । इस तत्त्वके संबंधमें हमारा जो ज्ञान है वह सविकल्प है। किन्तु यदि जल और लोहेके संबंधमें हमारा ज्ञान पूर्ण होता, अर्थात् अगर पानी और लोहेके सब गुण और उनकी भीतरी गठन हम संपूर्ण रूपसे जानते होते, तो हम निश्चितरूपसे जान सकते कि लोहा जलमें कभी उतरा नहीं सकता । अर्थात् लोहे और जलके संबंधमें हमारा ज्ञान पूर्ण होता तो हम यह बात मनमें भी नहीं ला सकते कि सष्टि इस तरहकी हो सकती जिसमें लोहा पानीमें उतराता है। ज्ञानकी अपूर्णतासे ही असंभव बात संभवपर जान पड़ती है। इसका एक मोटासा दृष्टान्त यहाँ पर देंगे। किसी आदमीने एक नया घर बनवाया। वह घर उत्तर-दक्खिन लंबा है और उसका दक्खिनका हिस्सा जनाना है और उत्तरका हिस्सा मर्दाना है । अतएव मर्दानेकी कोठरियोंमें दक्खिनी हवा नहीं आती। यह देखकर घरके मालिकके एक सुशिक्षित और सुबुद्धि मित्रने घरकी बनावटपर दोषारोप करके कहा-घरके पूर्व और बहुत सी जमीन पड़ी हुई है, इसलिए घरको अनायास ही पूर्व-पश्चिम लंबा करके पूर्वका हिस्सा औरतोंके रहनेके लिए छोड़ कर पश्चिमका हिस्सा मर्दानी बैठक बनाया जा सकता था, और ऐसा होता तो घरके दोनों हिस्सोमें दक्खिनी हवा आती। किन्तु
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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