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________________ ज्ञान और कर्म । [ प्रथम, भाग से दूषित या एकदम भ्रान्तिभूलक नही है, यही मत युक्तिसंगत है। लेकिन हाँ, हरएक स्थलमें जगतके सम्बन्धमें हम जो जान सकते हैं, वह यथार्थ है या नहीं, इसकी परीक्षा करना आवश्यक है । और, यह भी याद रखना कर्तव्य है कि उक्त अपूर्णता दोष अत्यन्त साधारण दोष नहीं है, और उससे सब तरहके भ्रम उत्पन्न हो सकते हैं। इसका एक साधारण दृष्टान्त दिया जाता है । हम आकाशमें चन्द्र, सूर्य, ग्रह, तारागण, छायापथ, नीहारिका आदि जो असंख्य ज्योतिर्मण्डल देखते हैं, उनकी अवस्थिति और स्थानका निर्देश करनेके लिए, अनेक ज्योतिर्विद्याके विद्वानोंने उनके सम्बन्धके नियम निश्चित करनेका प्रयास किया है । अनेक लोग यह भी सोच सकते हैं कि इसके सम्बन्ध में कोई नियम नहीं है, और सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिर्मय पदार्थ शून्य में जिस तरह स्थित देख पड़ते हैं, उसमें कोई शृंखला नहीं दिखाई देती । किन्तु कुछ सोचनेसे ही समझ में आता है कि हम लोगोंकी दर्शनेन्द्रियकी शक्ति सीमाबद्ध है । यद्यपि हम बहुत दूर पर स्थित तारोंको देख सकते हैं, लेकिन अनन्तके साथ तुलनामें वे अधिक दूर नहीं हैं, और जगत्का दृश्य जहाँ तक हम देख पाते हैं वह यद्यपि अत्यन्त विस्तृत है, किन्तु वह अनन्त जगत्का अत्यन्त क्षुद्र अंश मात्र है । और, अगर हमारी दर्शनशक्ति में पूर्ण - ता या अधिकतर व्याप्ति होती, और हम इस समय सारा जगत् अथवा जगतुका जितना अंश देख पाते हैं उसकी अपेक्षा अधिक अंश देख पाते, तो यह असंभव नहीं कि यह आकाश हमारी दृष्टिमें दूसरा ही रूप धारण किये हुए होता । जहाँ पर जान पड़ता है कि कुछ नहीं है, वहाँ पर असंख्य तारे देख पड़ते, और जहाँ जिस तरह विशृंखल भावसे तारागण आदि स्थित जान पड़ते हैं वहाँ उसकी अपेक्षा अधिकतर शृंखलाबद्ध रूपमें वे देख पड़ते । ज्ञाताकी दर्शनेन्द्रियकी एक तरहकी अपूर्णता अर्थात् अदूरदृष्टिके फलसे ज्ञेय पदार्थका ऐसा अपूर्ण विकास होता है। दृष्टिकी और एक प्रकार की अपूर्णता के कारण, अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि न होनेके कारण, और एक प्रकारका ज्ञेय पदार्थका अपूर्ण विकास घटित होता है। जड़ पदार्थका आभ्यन्तरिक संगठन कैसा है, वह परमाणुसमष्टि है या शक्तिकेन्द्र समष्टि हैं, परमाणुका संगठन कैसा है, इन सब प्रश्नों का उत्तर पूर्णताको प्राप्त सूक्ष्म दृष्टि के लिए अनायास लभ्य होता । लेकिन वैसी दृष्टिशक्तिका अभाव होनेके कारण ज्ञेय जड़ पदार्थ के स्वरूपके सम्बन्ध में न जानें कितनी भ्रान्तिमू २०
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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