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________________ ज्ञेय । दूसरा अध्याय ] १९ चाहिए यह मत कहाँतक युक्तिसंगत है कि ज्ञातासे ज्ञेयकी अर्थात् आत्मासे जगत्की सृष्टि होती है । ज्ञाताके लिए अपना ज्ञान ही ज्ञेय पदार्थके अर्थात् प्रतीयमान जगत्के अस्तित्वका प्रमाण और उसके स्वरूपका निर्णय करनेवाला है । जगत् में हमारे ज्ञानसे अतिरिक्त अर्थात् हमारे ज्ञानके बाहर अनेक पदार्थोंका होना संभव है, और जगत्का यथार्थ स्वरूप हम जगत्‌को जैसा देखते हैं उससे भिन्न हो सकता है । मगर हाँ, मेरा आत्मा बाहरी इन्द्रिय और भीतरी इन्द्रियके द्वारा जगत्को जैसा देखता है और सोचता है, अवश्य वह वैसा ही मुझे प्रतीत होता है । जगत्का वह प्रतीत रूप भ्रान्तिमूलक है या यथार्थ स्वरूप है, यही इस समय जिज्ञासाका विषय है । यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि मेरा जाना हुआ रूप ही ज्ञेय पदार्थका सच्चा और ठीक स्वरूप है; क्योंकि अनेक स्थलोंपर इसके विपरीत देखनेको मिलता है । जैसे—मुझे पाण्डु रोग हो जाय तो और लोग जिस वस्तुको श्वेतवर्ण देखेंगे उसे मैं पीतवर्ण देखूँगा, और मेरी आँखों और कानों में अगर तीक्ष्ण शक्ति नहीं होगी तो अन्य लोग जो कुछ देख-सुन पावेंगे वह मैं नहीं देख-सुन पाऊँगा । किन्तु यद्यपि विशेष विशेष स्थलोंमें ऐसा होता है, तो भी क्या साधारणतः यह कहा जा सकता है कि जगत् के विषयमें हम जो कुछ जानते हैं सो सभी भ्रान्तिपूर्ण है ? यद्यपि अद्वैतवादी वेदान्तीके मतमें जगत् मिथ्या और अध्यासमूलक है, लेकिन स्वयं शंकराचार्यजीने ही उस अध्यासको अनादि अनन्त और स्वाभाविक कहा है । जगत्को जो मिथ्या कहा है सो शायद इस अर्थमें कहा है कि जगत् अनित्य है, और ह वर्तमान देहयुक्त अवस्थाका सुख-दुःख, जो जगत् के ऊपर निर्भर है, वह भी अनित्य है और ब्रह्म ही नित्य है - ब्रह्मज्ञानका लाभ ही हमारे लिए चरम और नित्य सुखका उपाय है । किन्तु जगत् के सम्बन्ध में हम जो कुछ जानते हैं, 'उस सबको अगर भ्रान्तिमूलक कहें, तो यह भी कहना पड़ेगा कि चैतन्य ब्रह्म"की सृष्टिक्रिया विडम्बना मात्र है । किन्तु यह कथन कभी संगत नहीं हो सकता । अतएव यद्यपि हम अपूर्ण ज्ञानकी अवस्था में जगत् के पूर्ण स्वरूपको नहीं जान सकते, तो भी जगत् के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान उस अपूर्णता - दोष और व्यक्तिगत रोगादिसे उत्पन्न होनेवाले दोषके सिवा अन्य किसी प्रकारके दोष
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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