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________________ छठा अध्याय] धर्मनीतिसिद्ध कर्म। ३६७ www.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. विवाह जायज है। किन्तु हिन्दूसमाज विधवाके विवाहकी अपेक्षा चिरवैधव्यपालनको ही उच्च आदर्शका कार्य मानता है। इस अवस्थामें विधवाविवाहको चलानेकी चेष्टा, उस मतको बदलकर उसके विपरीत मत स्थापित करनेकी चेष्टाके सिवा और कुछ नहीं है । किन्तु वह क्या समाजके लिए हितकर है ? जीवनका आदर्श जितना उच्च रहे, समाजके लिए क्या वह उतना ही भलाई का कारण नहीं है ? अगर कोई कहे कि समाजका यह मत उन लोगोंके लिए, जो विधवाविवाहसे सम्बन्ध रखते हैं, स्पष्टरूपसे चाहे न हो, प्रकारान्तरसे अनिष्टकर है, तो उसका भी उत्तर है । समाजके द्वारा विधवाविवाहसे सम्बन्ध रखनेवालोंका जो अनिष्ट होता है, वह बहुत कुछ उन्हींके कार्यका फल है। वे अगर विधवाविवाह चिरवैधव्य पालनकी अपेक्षा अच्छा काम है, और विधवाविवाह समाज और देशके मंगलके लिए प्रचलित होना. चाहिए, इत्यादि बातें कहकर, चिरवैधव्यपालनके ऊपर हिन्दूसमाजकी जो श्रद्धा है उसे नष्ट करनेकी चेष्टा न करें, तो अनेक लोग उनका विरोध करना छोड़ देंगे। ५जाति-भेदका निराकरण । जातिभेद वर्तमान हिन्दूधर्मका एक विशेष विधान है। प्राचीन वैदिक युगमें जातिभेद था कि नहीं, और ऋग्वेदका (१)पुरुषसूक्त (जिसमें जातिभेदका प्रमाण है) प्रक्षिप्त है कि नहीं, इन सब प्राचीन तत्त्वोंकी आलोचना होना, 'इस समय जातिभेद मिटा देना उचित है कि नहीं ? ' इस प्रश्नके सम्बन्धमें विशेष प्रयोजनीय नहीं जान पड़ता। अनेक लोगोंका मत है कि उसे उठा देना उचित है । कारण, वह अनेक प्रकारके अनिष्टोंकी जड़ है। जातिभेदकी प्रथा हिन्दुओंमें एकता स्थापित करनेमें बाधा डालनेवाली है। और, वह किसी किसी जगह आपसमें विद्वषभाव भी उत्पन्न करती है। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसमें केवल दोष ही दोष हैं, गुण एक भी नहीं है। हिन्दुओंके बीच जो ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रका जन्मगत जांतिभेद है उसने पाश्चात्य सभ्यताके धनी और दरिद्रके अर्थगत जातिभेदको हिन्दूसमाजके भीतर संपूर्ण रूपसे नहीं घुसने दिया है। अर्थगत जातिभेद जितना मर्मवेदनाका कारण होता है, उतना जन्मगत जातिभेद नहीं होता। पाश्चात्य समाजमें धनी और निर्धनका जितना पार्थक्य है, हिन्दू (१) ऋग्वेद मण्डल १०, सूक्त ९०, ऋचा १२ ।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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