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________________ चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म । २८६ नहीं करनी चाहिए। मतलब यह कि संपूर्ण मनुष्यजातिके हित के लिए हरएक मनुष्यको अपने हितकी आकांक्षा कुछ छोड़नी चाहिए। यह होनेसे ही मनुष्यजातिमें मैत्रीका नाव स्थापित हो सकता है। इसके सिवा अन्य किसी उपायसे मनुष्यजाति में मैत्रीका भाव स्थापित नहीं हो सकता । कोई कोई कहते हैं, सभी मनुष्य समान हैं, सभी स्वाधीन हैं, सभी पृथ्वीकी भोग्य वस्तुओंके तुल्य अधिकारी हैं और जो सब नियम इसके विपरीत हैं वे अग्राह्य हैं। इस मतको सामाजिकत्व या साम्यवाद कहते हैं | आजकलका बोल्शेविज्म इसीसे मिलता जुलता है । और एक संप्रदाय के मतमें सभी मनुष्यों और सभी जातियोंकी प्रकृति जुड़ी जुड़ी है, हरएक अपनी अपनी शक्तिहीके अनुसार काम करता है, क्रमविकासके नियमानुसार वे सब शक्तियाँ विकासको प्राप्त होती हैं और अन्तको जीवनसंग्राममं योग्यतमहीकी जय होती है । जो व्यक्ति और जो जातियाँ योग्यतम होती हैं, वे ही अन्तको बच रहती हैं, और सब विध्वस्त या परास्त होती । इस मतको व्यक्तिगत वैषम्यवाद कहा जाता है । इन दोनों विरुद्ध मतोंमेंसे कोई भी युक्तिसिद्ध नहीं है । सभी मनुष्य समान नहीं हैं। मनुष्यकी शारीरिक और मानसिक प्रकृति अनेक प्रकारकी है । कुछ विषयों में, जैसे शारीरिक स्वाधीनता में और खाने-पीने पहनने और रहनेके उपयोगी पदार्थोंमें, सभीका तुल्य अधिकार अवश्य है, लेकिन अनेक विषयोंमें, जैसे अन्यके निकट संमान, भक्ति या स्नेह पानेमें, सबका अधिकार समान नहीं है । और इन चीजों में अधिकारकी न्यूनाधिकताका नियम न रहनेसे समाज चल नहीं सकता । 1 सभी सनुष्य समान हों और समान अधिकार पावें, यह सभी के लिए वांछनीय है, और जिसमें सभी समान हो सकें इसके लिए सबको उपयुक्त शिक्षा देना और इसके लिए सर्वत्र उपयुक्त व्यवस्था स्थापित होना कर्तव्य है । किन्तु जबतक सबके पूर्ण ज्ञान न उत्पन्न हो, और उस ज्ञानके अच्छे अभ्यासके फलसे सबकी स्वार्थपर निकृष्ट और अनिष्टकर प्रवृत्तियाँ शान्त न हों, तबतक सभी मनुष्यों को समान और सब विषयों में समान अधिकारी नहीं कहा जा सकता । अतएव साम्यवाद संपूर्णरूपसे सत्य नहीं है । वैषम्य
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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