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________________ २८० ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग उसका स्वास्थ्य, संख्या और समृद्धि क्रमशः घटती जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारा भारतवर्ष हो रहा है। दसरे खाने-पीने-पहनने-रहनेके सुभीतेके लिए, अन्यका स्पष्ट अनिष्ट न करके जो अपने हितके काम करने होते हैं, उन्हें न्यायसंगत हितकर काम कहना होगा । और उनके द्वारा किसीका कुछ (साधारण) अहित होने पर भी आपत्ति न करनी चाहिए। बहिर्जगत्में एकके हितके साथ साथ अन्यका कुछ अहित होना अगर अनिवार्य कहा जाय तो कहा जा सकता है। मनुष्यका जगत्में आना ही इसतरहके अहितसे सम्बन्ध रखता है। पैदा होते ही मनुष्य अनेक स्थलों में दूसरेका शत्रु होता है। वह कोई और गैर नहीं, उसीका छोटा सहोदर (सगा छोटा भाई )-है। और, वह शत्रुता भी सामान्य शत्रुता नहीं है। वह अपने अग्रजको उसके श्रेष्ठ आहार माताके दूधसे, और उसके श्रेष्ठ निवासस्थान माताकी गोदसे कुछ वञ्चित करता है। उसके सभी सुखोंमें हिस्सा लगाता है। किन्तु वह शैशवका वैरभाव जैसे अवस्था बढ़नके साथ साथ भातृस्नेहका रूप रख लेता है, वैसे ही आशा की जाती है कि व्यक्तिव्यक्तिमें जाति जातिमें जो खाने-पहनने-रहनेके सामानोंके लिए विरोध देख पड़ता है, वह सभ्य जगतके साधारण और वृत्तिसम्बन्धी ज्ञानकी वृद्धिके साथसाथ मैत्रीका भावधारण कर लेगा। मनुष्य मनुष्य और जाति जातिमें भी एक प्रकारका भातसम्बन्ध है, सभी उसी जगदीश्वर परम पिताकी सन्तान हैं। इस उद्देश्यसे कि जगत्के लोगोंके खाने-पीने-पहनने-ओढ़ने और रहनेके लिए अच्छी तरह सुभीता हो, सभ्यजगत्में तरह तरहकी सभा-समितियाँ स्थापित हुई हैं, अनेक प्रकारके सामाजिक, वृत्तिसम्बन्धी और राजनीतिक मतोंका प्रचार हुआ है, और उन सबको सामाजिकत्व (Socialism) नामसे अभिहित किया जासकता है। किन्तु इस सम्बन्धमें चाहे जिस किसी प्रकारकी सभा-समिति, नियम और मत स्थापित क्यों न हों, उन सबका मूलमन्त्र यही है कि हरएक व्यक्ति और हरएक जाति जिन सब अपने न्यायसंगत हितकर कामोंको करती है, अर्थात् यथायोग्य खाने-पहनने-रहनेके सुभीतेके लिए जिन सब कामोंको करती है, उनसे अन्य व्यक्ति या अन्य जातिका जो कुछ अहित होता है, या होनेकी संभावना है, उसमें आपत्ति
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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