SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૪૮ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग श्यक समझते हैं, और विवाहके उच्च आदर्शको भूल जाते हैं । वास्तवमें विधवाका फिर विवाह करना केवल इन्द्रिय-तृप्तिके लिए कर्तव्य नहीं है, वह पतिप्रेम, अपत्यस्नेह आदि सब उच्च वृत्तियोंके विकासके लिए कर्तव्य है।" उन लोगोंका यह कथन बेशक विचित्र ही है। विधवाविवाहका निषेध विधवाकी आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधा डालनेवाला है, और विधवाविवाहकी विधि उस उन्नतिके साधनका उपाय है, यह बात कहाँतक संगत है, देखना चाहिए । पतिप्रेम जो है वह एक साथ ही सुखका आकर और स्वार्थपरताके क्षयका उपाय है । किन्तु उसे वैषयिक भावसे सुखकी खान समझा कर अधिक आदर करनेसे उसके द्वारा स्वार्थपरताके क्षयकी अर्थात् आध्यात्मिक भावके विकासकी संभावना बहुत ही थोड़ी है। विधवाके आध्यात्मिक भावसे पतिप्रेमके अनुशीलनके लिए दूसरे पतिको ग्रहण करना निष्प्रयोजन है, और बल्कि उस पतिप्रेमके अनुशीलनमें बाधा डालनवाला है। उस विधवाने प्रथम पा.. पानेके स.. उसीको पतिप्रेमका पूर्ण आधार समझकर उसे आत्मसमर्पण किया था, अतएवं उसकी मृत्युके बाद, स्मृति-मन्दिरमें स्थापित उसकी मूर्तिको जीवित रखकर, उसीके प्रति प्रेमको अविचलित रखसकनसे. वही विजारोहा । और आध्यात्मिक उन्नतिका साधन होगा। उस प्रेमकी श्रीतदान अवश्यहा। वह नहीं पावेगी। किन्तु उच्च आदर्शका प्रेम प्रतिदान चाहता भी नहीं। पक्षान्तरमें विधवा यदि दूसरे पतिसे व्याह कर लेगी, तो अवश्य ही उसके पतिप्रेमके अनुशीलनमें भारी संकट आपड़ेगा । जिस प्रथम पतिको पतिप्रे. मका पूर्ण आधार जानकर आत्मसमर्पण किया था, उसे भूलना होगा, उसकी हृदयमें अंकित मूर्तिको वहाँसे निकाल देना होगा, और उसे जो प्रेम अर्पण किया था वह उससे फेरकर अन्य पात्रको सौंपना होगा। ये सब कार्य आध्यात्मिक उन्नतिके साधनमें भारी बाधा डालनेवाले होनेके सिवा उसके लिए उपयोगी कभी नहीं हो सकते। यह सच है कि मृत पतिकी मूर्तिका ध्यान करके उसके प्रति प्रेम और भक्तिको अविचलित रखना अति कठिन कार्य है, किन्तु असाध्य या असुखकर नहीं है, और हिन्दू विधवाका पवित्र जीवन ही उसका प्रशस्त प्रमाण है, जो कि बहुतायतसे देखनेको मिल सकता है। मैं यह नहीं कहता कि सभी विधवाएँ चिरवैधव्यपालनमें
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy