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________________ तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म । चिर वैधव्य विधवा-जीवनका उच्चादर्श है। किन्तु यह याद रखना चाहिए कि यदि देशके आधेके लगभग आदमी किसी उच्च आदर्शकी अनुयायिनी प्रथाका पालन करते हैं, तो शेष आधे लोग उसका पालन न करनेसे खुद निन्दनीय होंगे । चिर-वैधव्य अगर उच्च आदर्शकी प्रथा है, तो यह कह कर कि पुरुष लोग पत्नीवियोगके बाद अन्य विवाह कर लेते हैं, वह प्रथा उठा देना कर्तव्य नहीं है। बल्कि समाजसंस्कारकोंको यही उचित है कि मर्द लोग भी जिससे उसी उच्च आदर्शके अनुसार चल सकें वह यत्न करें । अतएव मूल प्रश्न यह है कि पुरुष चाहे जो करें, स्त्रियोंके जीवनका उच्च आदर्श चिरवैधव्यपालन है कि नहीं? ___ इस प्रश्नका ठीक उत्तर देनेके लिए यह आवश्यक है कि विवाहके उद्देश्योंपर दृष्टि रक्खी जाय। विवाहका पहला उद्देश्य अवश्य यही है कि संयत भावसे इन्द्रिय-तृप्ति, सन्तान उत्पन्न करना और उनका पालन पोषण करना । किन्तु विवाहका एक यही उद्देश्य नहीं है, और न इसको श्रेष्ठ उद्देश्य ही कह सकते हैं। विवाएका दूसरा और श्रेष्ठ उद्देश्य है दाम्पत्यप्रेम और अपत्य स्नेहसे क्रमशः चित्तकी प्रवृत्तियोंका विकास, उसके द्वारा मनुष्यकी स्वार्थपरताका क्षय, परार्थपरताका वृद्धि आर अध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना। अगर पूर्वोक्त पहला उद्देश्य ही विवाहवा एकमात्र उद्देश्य होता, तो सन्तान पैदा करनेके पहले पतिवियोग हो जानेपर दूसरे पतिको ग्रहण करने में विशेष दोप न रहता । मगर हाँ, सन्तान पैदा करने के बाद द्वितीय पति ग्रहण करनेसे उस सन्तानके पालन-पोपणमें बाधा पड़ती, अतएव उस अवस्थामें चिर वैधव्य, केवल उच्च आदर्श क्यों, प्रयोजनीय भी होता। किन्तु विवाहके दूसरे उद्देश्य पर दृष्टि रखनेसे चिरवैधव्यपालनके ही उच्च आदर्श होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। जिस पति-प्रेमका विकास क्रमशः पत्नीकी स्वार्थपरताके क्षय और आध्या. त्मिक उन्नतिका कारण होगा, वह अगर पतिके अभावमें लुप्त हो जाय, और अगर पत्नी अपने सुखके लिए उस पति-प्रेमको अन्य पतिमें स्थापित करे, तो फिर स्वार्थपरताका क्षय क्या हुआ? इसके उत्तरमें कभी कभी विधवाविवाहके अनुकूल पक्षके मुखसे यह बात सुन पड़ती है कि " जो लोग विधवाविवाहका निषेध करते हैं वे विवाहको केवल इन्द्रियतृप्तिके लिए आव.
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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