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________________ तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म । २२५ ऐसा होना विचित्र नहीं है। इस देशमें एक समय बाल्यविवाह जिस ढंगसे प्रचलित था, उसमें अनेक दोष थे और उससे बहुत कुछ अनिष्ट हुआ है । अतएव उस पर लोगोंके मनमें अश्रद्धा उत्पन्न होना स्वभावसिद्ध था । उसके ऊपर इस देशकी ऐहिक हीन अवस्थासे होनेवाले कष्ट थोड़ा-बहुत सभीको भोगने पड़ रहे हैं, और वे सहज ही देखे जाते हैं। और, यह कुफल इस देशकी प्राचीन रीति-नीतिका ही है ( बात चाहे सच हो या न हो), ऐसा ही बहुत लोगोंका विश्वास है। उस प्राचीन रीति-नीतिका अगर कुछ सुफल हो, तो वह ऐहिक या वैषयिक नहीं है, अध्यात्मिक है; सब लोग उतने सहजमें उसका अनुभव नहीं कर सकते। इसके सिवा लोग अपने मतके विरुद्ध रीति-नीतियोंके दोष दिनरात बखान करके लोगोंके मतको इतना अधीर बना देते हैं कि वे उस रीति-नीतिके कुछ गुण रहने पर भी उसकी ओर आंख उठाकर देखना नहीं चाहते। यह भी स्वाभाविक ही है । प्राचीन रीति-नीतियाँ भी समाजकी अवस्था बदलनेके साथ साथ परिवर्तनयोग्य हो जाती हैं । वस समाजसंस्कारक लोग लोकहितके लिए उन्हें बदलनेकी चेष्टा करते हैं। सब ओर दृष्टि रखकर सब बातोंके भले-बुरे दोनों पहलुओं पर विचार करके चला जाय तो उसमें बहुत धीरे चलना पड़ता है। इसी कारण वे एकदेशदर्शी होकर वेगके साथ संस्कारकी ओर अग्रसर होते चलते हैं । वे अपना कार्य करते हैं, और करेंगे, उसमें उनके साथ मेरा कोई विरोध नहीं है । उनसे मेरा केवल यही विनीत निवेदन है कि वे प्राचीन रीतिनीतियोंके दोषोंकी खोज करते समय उसके गुणोंकी ओरसे एकदम आँख न फेर लें। इसमें सन्देह नहीं कि संसार निरन्तर गतिशील है। कुछ भी स्थिर नहीं है। कोई सामने, कोई पीछे, कोई सुपथमें, कोई कुपथमें, इस तरह जगत्के सभी पदार्थ चल रहे हैं । अतएव परिवर्तनका विरोध टिक नहीं सकता । किन्तु यदि कोई किसी वस्तुको सुमार्गमें चलानेकी और उसे उसके गन्तव्य स्थानमें ले जानेकी इच्छा करे, तो केवल उसकी गतिका वेग बढ़ादेनेसे ही काम नहीं चलेगा, उसकी गतिकी दिशा भी स्थिर रखनी होगी। चतुर सवार घोड़ेके केवल कोड़े ही नहीं मारता चला जाता, साथ ही उसकी लग.नको भी खींचता है । अतएव संस्कारक अगर केवल सामने देखने में ही लगा रहेगा तो काम नहीं चलनेका-आगे पीछे और चारों ओर देख-सुनकर सावधानीसे चलना आवश्यक है। ज्ञान०-१५
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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