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________________ २०२ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग जमें न्याय-अन्यायके सम्बन्धमें इतना मतभेद न रहता । वे दिखावेंगे कि अति असभ्य जातियोंमें न्याय-अन्यायके भेदका ज्ञान बिल्कुल है ही नहींयह भी कहा जा सकता है, लेकिन उनमें सुख-दुःखके भेदका ज्ञान अत्यन्त तीव्र है। उनकी यह बात सत्य मान लेनेपर भी, केवल जगत्के एक भागका कार्य देखकर किसी स्थिर सिद्धान्तमें नहीं पहुंचा जा सकता । अन्य ओरके कार्योंको भी देखना आवश्यक है, और हमारी क्षीण बुद्धिसे जहाँतक साध्य है वहाँतक संपूर्ण जगत् पर दृष्टि रखकर जो सिद्धान्त संगत जान पड़े वही ग्राह्य है । जीवके ज्ञानका विकाश क्रमशः होता है, यह सर्ववादिसंमत बात है। उच्च श्रेणीके जीवके जो सब ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, अति निम्न श्रेणीके जीवमें वे नहीं देख पड़ती। किन्तु किसी किसी श्रेणीके जीवके श्रवणेन्द्रिय न होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि ध्वनि या वर्णका प्रभेद मौलिक नहीं है। वैसे ही अति असभ्य जातियों में न्याय-अन्यायका बोध न होनेसे यह नहीं कहा जा सकता किन्याय-अन्यायका प्रभेद मौलिक नहीं है। बहिर्जगत्-विषयक ज्ञानके सम्बन्धमें, मनुष्यजातिके भीतर भी, वैसी ही न्यूनाधिकता है। क्रमविकासका नियम सभी जगह प्रबल है। मनुष्यका अन्तर्जगत्-विषयक ज्ञान क्रमशः स्फूर्तिलाभ कर रहा है। असभ्य जातियोंमें केवल न्याय-अन्यायका बोध ही क्यों, और भी अनेक विषयोंका बोध, जैसे गणितके स्वतःसिद्ध तत्त्वका बोध भी, अत्यन्त अस्पष्ट है। उसके बाद अति असभ्य जातियोंमें न्याय-अन्यायका बोध बिल्कुल ही नहीं है, यह बात भी स्वीकार नहीं की जासकती। वह बोध दुर्बल या अस्फुट हो सकता है, किन्तु उसका संपूर्ण अभाव संभवपर नहीं जान पड़ता। हमारी अनेक दुष्प्रवृत्तियोंके भीतर भी यह न्याय-अन्यायका बोध प्रच्छन्नरूपसे निहित है । बदला लेनेके लिए जब कोई मनुष्य शत्रुपर आक्रमण करनेके लिए उद्यत होता है, तब यद्यपि आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीसे बदला लेना उस कार्यका स्पष्ट उत्तेजक प्रतीत होता है, किन्तु शत्रुने जो अनिष्ट किया वह अन्याय कार्य है और न्यायके अनुसार उसका बदला उससे मिलना चाहिए-यह भाव आक्रमण करनेवालेके हृदयके भीतर अस्फुटरूपसे रहता है। आत्मासे पूछने पर उसकी उक्तिसे और अनेक जगह बदला लेनेवालेकी अपनी उक्तिसे यह बात जानी जाती है। प्रवृत्तिवादी लोग कह सकते हैं कि इस बातसे तो सुखवाद और हितवाद ही प्रमाणित
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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