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________________ दूसरा अध्याय] कर्तव्यताका लक्षण । १९९ सामञ्जस्य करके कार्य करना ही कर्तव्य है। उनके मतको सामञ्जस्यवाद कह सकते हैं। () न्यायवाद । प्रवृत्तिवाद, निवृत्तिवाद और सामञ्जस्यवाद, ये तीनों ऊपर कहे गये मत कर्तव्यताको कर्मका मौलिकगुण नहीं मानते । वे कहते हैं कर्तव्यता जो है वह कर्मके फलसे अथवा कर्मकी प्रवर्तनाके मूलसे उत्पन्न है । इन तीन तरहके मतोंसे अलग और एक मत है । उसके अनुसार बाह्यवस्तु जैसे बृहत् या श्चद्र, स्थावर या जंगम हैं, वर्ण जैसे शुक्ल कृष्ण या पीत इत्यादि हैं, वैसे ही कर्म भी कर्तव्य और अकर्तव्य हैं। अर्थात् बड़ापन या छोटापन जैसे वस्तुके मौलिक गुण हैं, अन्य गुणके अर्थात् स्थावरत्व या जंगमत्वके फल नहीं हैं,सफेदी कालापन या पीलापन जैसे वर्णके मौलिक गुण हैं, अन्य गुणोंसे अर्थात् उज्ज्वलता या मलिनतासे उत्पन्न नहीं हैं, वैसे ही कर्तव्यता या अकर्तव्यता अर्थात् न्याय या अन्याय, कर्मके मौलिक गुण हैं, अन्य गुणोंके अर्थात् सुखकारिता या असुखकारिताके फल नहीं हैं, अथवा उसी तरहके अन्य गुणोंसे उत्पन्न नहीं हैं। और वस्तुका बड़ापन या छोटापन, और वर्णकी सफेदी या कालापन, जैसे प्रत्यक्षके द्वारा ज्ञेय हैं, वैसे ही कर्मकी कर्तव्यता अकर्तव्यता अर्थात् न्याय या अन्याय भी विवेकके द्वारा ज्ञेय हैं। इस मतको न्यायवाद कह सकते हैं। सहानुभूतिवाद ।। इनके सिवा और भी अनेक मत हैं, पर उनके विशेष उल्लेखका प्रयोजन नहीं है। कारण, कुछ सोचकर देखनेसे वे ऊपर कहेगये चारों मतोंमेंसे किसी न किसीके अन्तर्गत प्रतीत होंगे। उनमेंसे केवल एक मतकी कुछ चर्चा की जायगी। कारण, ईसाई धर्मके एक मूल उपदेशके साथ उसका अति घनिष्ठ सम्बन्ध है । वह मत संक्षेपमें यह है कि " भले या बुरेको मैं जैसा जानता हूँ, दूसरा भी वैसा ही जानता है । अतएव दूसरेके कार्यको मैं जिस भावसे देखता हूँ, मेरे कार्यको दूसरा भी उसी भावसे देखेगा। अतएव अन्यके जैसे कार्यका मैं अनुमोदन करता हूँ, मेरा भी वैसा ही कार्य अनुमोदनके योग्य और कर्तव्य है ।" इस मतको सहानुभूतिवाद कह सकते हैं (१)स्वर्गीय बंकिमचंद्र चटर्जीके लिखे कृष्णचरित्रका पहला परिच्छेद देखो।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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