SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान और कर्म । [प्रथम भाग ठीक करना आवश्यक है। जिससे सहजमें उसका लंघन न किया जाय, और लंघन करने पर वह सहज ही पकड़ लिया जाय, ऐसे नियमका प्रयोजन है। अभाव और सुख। ज्ञान-लाभके द्वारा हमारी आवश्यकताओंकी और अपूर्णताओंकी पूर्ति होकर जिससे सच्चा सुख बढ़े, वही वांछनीय है। किन्तु दुःखका विषय यह है कि ऐसा न होकर अनेक जगह ज्ञानलाभके द्वारा नवीन अभावोंकी सृष्टि होती है। एक साधारण दृष्टान्तके द्वारा यह बात स्पष्ट समझमें आ जायगी। पचीस-तीस वर्ष पहले, जब चायकी खतीको इस देशके लोग अच्छी तरह नहीं समझते थे, तब चायका चलन भारतवासियोंमें बहुत ही कम था। लेकिन इस समय इस देश में चाय पीना इतना प्रचलित हो गया है कि क्या अमीर और क्या गरीब, सबमें अधिकांश लोग ऐसे हैं कि वे चाय पिये बिना नहीं रह सकते; यद्यपि चाय अनेकोंके लिए पुष्टिकारक न होकर अपकार करनेवाली ही है (१)। और, अनेक लोगोंकी अवस्था ऐसी है कि चाय पीनमें जो खर्च होता है वह प्रयोजनीय आहारकी चीजोंका खर्च कम करके उससे करना पड़ता है। जब चायकी खेतीको हम नहीं जानते थे तब चायका अभाव ही नहीं जान पड़ता था। इस समय चायकी खेती जानकर हमने चाय पीनेकी स्पृहासे उत्पन्न एक नये अभावकी सष्टि कर ली है, और चाय पीनेके द्वारा उत्पन्न असुस्थता हमारे अपूर्ण शरीरकी अपूर्णताको और भी बढ़ा रही है। फिर आश्चर्यका विषय यह है कि शिक्षित समाजमें चाय पीनेका अभ्यास भी सभ्यताका एक लक्षण गिना जाता है। बहुत लोग समझते हैं कि अभावका कम होना सभ्यताका लक्षण या सुखका कारण नहीं है। मनुष्यकी उन्नतिके साथ साथ अभावोंकी और उसकी पूर्ति में सुखकी वृद्धि होती है। एक पाश्चात्य कविने कहा है-" जिसके अभाव कम हैं उसको सुख भी थोड़ा मिलता है । अभावसे आकांक्षा बढ़ती है, और अभावकी पूर्तिसे सुख होता है।" (२) __ यह बात सच है कि ज्ञानवृद्धि तथा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिके साथ साथ हमारा अभावबोध और उसे पूर्ण करनेकी ( 9 ) Dr. Weber's Means for the Prolongation of Life, P.51 (२) Goldsmith's Traveller, Lines 211-214 देखो।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy