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________________ ५७४ ] दिगम्बर जैन साधु क्षुल्लक जम्बूसागरजी महाराज श्री १०५ क्षुल्लक जम्बूसागरजी का पहले का नाम श्री हजारीलालजी था। आपके पिता का नाम श्री हुब्बलालजी था। आपकी माता श्रीमती चिरौंजाबाईजी थी । आप गोलसिंधारे जाति के भूषण थे । आपका जन्म स्थान भिण्ड ( मध्यप्रदेश ) था । आप वचपन से ही धर्म-प्रेमी थे। ___ आपने ज्येष्ठ शुक्ला छठ विक्रम संवत् २०२६ को चौरासी (मथुरा ) में क्षुल्लक दीक्षा ले ली। आप कई जगहों पर भ्रमण करके जनता को धर्म लाभ दे रहे हैं। आचार्य योगीन्द्रतिलक शान्तिसागरजी महाराज आचार्य श्री शान्तिसागरजी का जन्म वीर निर्वाण संवत् २४०९ (सन् १८८४ ई०) में बम्बई ग्राम में सतारा जिला के इसलामपुर तालुका में दूधगाँव नामक प्रान्त में हुआ। दक्षिणी भारत की चतुर्थ पंचम नामक उच्च एवं श्रेष्ठ जातियों में आप अतिश्रेष्ठ चतुर्थ जाति के रत्न हैं। आपकी माता का नाम श्रीमती हीराबाई था; आपके पिता श्री रामगोंडा पाटील दूधगाँव के प्रधान पद पर सम्मानित थे । नवीं वर्ष की अवस्था में शिक्षा ग्रहण हेतु आप स्कूल में प्रविष्ठ किए गये । पाँच वर्ष तक आपका शिक्षा अध्ययन निर्बाध गति से चलता रहा किन्तु दुर्भाग्य वश आपकी माता श्री का देहान्त हो जाने के कारण आपको वाध्य होकर अपनी शिक्षा त्यागनी पड़ी। जब आप चौदह वर्ष के थे, आपको गृहस्थी के झंझटों में चला आना पड़ा। पन्द्रहवें वर्ष में आपका विवाह श्रीमती रुक्मणीवाई के साथ हुआ । इस प्रकार आप पूर्ण रूपेण गृहस्थ के रूप में अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ करने चले किन्तु विधि की विडम्बना कुछ और ही थी। विधाता ने आपको किसी और ही कार्य हेतु इस धरा पर अवतरित किया था । दुःख दैन्य एवं नाना प्रकार के संकटों से भटकती हुई मानवता का कल्याण आपके द्वारा होना ही था। विवाह के दो वर्ष भी व्यतीत न हो पाये कि कुटिल काल के कठोर करों ने आपकी धर्म पत्नी को इस संसार से सदैव के लिए छीन लिया। आपके पिताजी, कुटुम्वी जनों तथा इष्ट मित्रों ने बहुप्रलोभन देकर आपको पुनर्विवाह हेतु उकसाना चाहा परन्तु मानवता का पुजारी अपने हृदय में जो सेवा भाव के बीज बो चुका था, अनुकूल परिस्थिति पाकर अव उसमें अंकुर निकल चले थे । सन्मार्ग के अनुसरण में आपने पुनः विवाह को अपने मार्ग का कंटक ही समझा और इस प्रकार विश्वकल्याण की भावना से ओत-प्रोत इन्होंने अपने जीवन को इस पुण्य लक्ष्य की प्राप्ति स्वत: बना लिया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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