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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ५७५ धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा एवं भक्ति लिये इस मुनि ने सर्व प्रथम श्री वाहुबलिजी के दर्शन किये वहीं परम सौभाग्य से आपको आचार्य श्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन हुए जिनके उपदेश ने आपकी कोमल भावनाओं पर अमिट प्रभाव छोड़ा । आपने गुरुजी के सन्मुख यह प्रतिज्ञा की कि आप आजीवन जिन धर्म के प्रारम्भिक व्रतों एवं नियमों का पालन पूर्ण निष्ठा के साथ करते रहेंगे। तत्पश्चात् आपने शेड़वाल की जैन पाठशाला में तीन वर्ष तक शास्त्र अध्ययन कर ज्ञानोपार्जन किया। इस प्रकार ज्ञान गरिमा से परिपूर्ण मुनिजी द्वितीय बार श्री १०८ प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन लाभ हेतु गये और अपने गुरु के उपदेशानुसार सातवीं प्रतिमा धारण की। तत्पश्चात् आप गुरु के संघ में सम्मिलित किये गये । संघ में नित्य प्रति प्राप जिनवाणी का स्वाध्याय करते-आचार्य के उपदेशामृत का पान करते तथा अनेक विद्वानों के व्याख्यानों एवं धार्मिक ज्ञान से परिपूर्ण आदेश को सुनते । विक्रम संवत् १९८४ में संघ ने श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा करके चतुर्मास कटनी में सम्पन्न किया जिसमें आप भी थे। बाद में संघ के साथ विहार करते करते चातुर्मास ललितपुर में हुआ वहाँ पर भी आप थे । वहाँ से ही आप एकलविहारी हो गये और संघ को छोड़कर श्रवण वेलगोला की यात्रा को निकले । अनेक स्थानों पर धर्मोपदेश देते हुए आप अपने अभीष्ट स्थान पहुंचे, जहां आपको श्री १०८ आचार्य वृषभसैन ( आदिसागर ) के दर्शन हुए। उनका वैराग्यपूर्ण उपदेश सुनकर मापने ग्यारहवीं प्रतिमा की पहली अवस्था क्षुल्लकव्रत धारण किया। चार मास के उपरांत आपने दूसरी अवस्था ऐलक व्रत और भेष धारण किया तथा अगले चार मास बीत जाने पर आप अष्ट कर्मों को क्षय करने वाले मुनि पद पर सुशोभित एवं सम्मानित हुए । दीक्षा का उत्सव जैन समाज द्वारा संवत् १९८५ में श्रवण बेलगोला में बड़े ही समारोह से हुआ जहाँ आपने आचार्य श्री १०८ वृषभसैनजी से दश भक्ति प्रादि मुनि क्रिया सीखी । तदुपरान्त आपने विहार किया तब से आपने कई स्थानों पर चतुर्मास सम्पन्न किये । इसी काल में आपने श्री शिखरजी की पुन: यात्रा भी की। पGG Va
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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