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________________ · दिगम्बर जैन साधु । ५७३ संस्कार क्षुल्लक ग्यारहवीं प्रतिमा याचना पूर्वक ग्रहण की। इसी समय समस्त समाज की स्वीकृति पूर्वक नामकरण श्री १०५ क्षुल्लक नेमिसागर पद प्राप्त किया। क्षुल्लक नेमिसागर की अन्तःप्रेरणा आगे बढ़ रही थी तथा वह चाहते थे कि मैं अपने आपको कब मुनि रूप में देखू। इसी उद्देश्य से गुरुवर्य पूज्य १०८ आचार्य योगीन्द्रतिलक मुनि शान्तिसागरजी को पत्र लिखा । विनय की गई कि पत्र द्वारा ही स्वीकृति दी जाये । सेवा में उपस्थित होने में समय लगेगा । अत: गुरुदेव ने पत्र द्वारा स्वीकृति प्रदान कर दी। फलतः श्री १००८ दि० जैन सिद्ध क्षेत्र प्रहारजी (टीकमगढ़) के वार्षिक मेला महोत्सव के समय श्री वीर नि० सं० २४६४ वि० सं० २०२४ शुभमिती मार्गशीर्ष शुक्ला १३-१४-१५ गुरु, शुक्र, शनि दिनांक १४-१५-१६ सितम्बर १९६७ को श्री मदनकुमार कामदेव एवं विश्ववंद्य केवली के चरण युगल पादुका के समक्ष श्री गुरुजी का फोटो विराजमान कर श्री ब्र० पं० रेशमबाईजी पिड़ावा (राज० ) तथा श्री गेंदालालजी सोनी खण्डेलवाल जैन, असावदा (बड़नगर) द्वारा उक्त युगल टोंक चरण निर्माण स्थल पर सम्पन्न प्रतिष्ठा ध्वजारोहण के आदि समारोह समय क्षेत्रीय कमेटी की सम्मति पूर्वक एवं बाहर से प्राप्त विद्वानों की लिखित स्वीकृति तथा समस्त प्रान्तीय समाज की स्वीकृति पूर्वक दिनांक १४-१२-१९६७ को ऐलक दीक्षा ग्रहण की एवं दि० १५-१२-१९६७ को पूजा विधि कर पात्रादि विधि तथा दिनांक १६ को निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि दीक्षा सहर्ष स्वीकार की । इस प्रकार आप श्री पूज्य १०८ आचार्य योगीन्द्र तिलक शान्तिसागरजी के पट्ट शिष्य हैं। ऐसे तपोनिधि लोकोपकारी परम पवित्र आत्मा महान् साधक आध्यात्मिक संत समयसारादि महाग्रन्थों के अनुभवी विद्वान् पूज्य श्री नेमिसागरजी के पवित्र चरणों में शत-शत वन्दन है। आपने सतत् अध्ययन कर जो ज्ञानार्जन किया उसे आप निरन्तर लिपि बद्ध करते रहे जिसके आधार स्वरूप आपकी लेखनी द्वारा लिखित प्रतिष्ठा एवं वैद्यक सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ हस्तलिखित उपलब्ध हैं जिनका प्रकाशित होना अति महत्वपूर्ण एवं जनोपयोगी है । आपके द्वारा लिखित पांडुलिपियाँ शुद्ध एवं अति स्वच्छ हैं । अक्षर तो इतने सुन्दर हैं कि मानों छापे के ही हों। महाराजजी की ८५ वर्ष की वृद्ध अवस्था होने पर भी वे अपने लेखन कार्य में सदा संलग्न रहते हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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