SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५२ ] दिगम्बर जैन साधु उपसर्ग विजेता: एक बार आप बड़वानी सिद्धक्षेत्र पर ध्यान-मग्न थे। किसी दुष्ट पुरुष ने मधु-मक्खियों के छत्ते पर पत्थर फेंक दिया। मधुमक्खियों ने आचार्य श्री पर आक्रमण किया। लहुलुहान होकर भी आपने ध्यान नहीं छोडा । इसी प्रकार जब आप खण्डगिरि उदयगिरि क्षेत्र की यात्रा के लिए जा रहे . थे कि पुरलिया में तीन शराबी लोगों ने प्राचार्य श्री को अकारण ही मारने के लिए लाठियां उठाई। सेठ चांदमलजी ने अपने गुरु की रक्षा करने के लिए स्वयं लाठियां खाईं पर फिर भी कुछ तो आचार्य श्री को लगीं। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट ने आकर उन्हें खूब फटकारा । दुष्ट लोग क्षमा मांगकर भाग गये । इसी प्रकार सम्मेदशिखरजी सिद्धक्षेत्र पर भी अगहन में असहनीय शीत नग्न शरीर पर झेलकर अपनी अपार विरक्ति का परिचय दिया। आचार्यश्री के समग्न शरीर पर ब्रह्मचर्य की आभा दिखती थी। आप घन्टों एक प्रासन से ध्यान करते थे । आचार्य श्री की निर्वाण भूमियों के प्रति अपार निष्ठा थी। शायद इसीलिए कि आप स्वयं निर्वाण के तीन अभिलाषी थे । जब गिरनार क्षेत्र के दर्शनकर . आप शत्रुञ्जय अहमदाबाद होते हुए मेहसाना पहुँचे तव वहाँ ६ फरवरी, १९७२ को आपका समाधिमरण हो गया । चूकि आपको अपनी मृत्यु का आभाष होने लगा था, अतएव पहले ही संघ की सुव्यवस्था कर दी थी। भट्टारकों के प्रति उद्गार : आज जो प्राचीन शास्त्र ग्रन्थ पढ़ने, देखने, दशन करने को मिल रहा है वे सब भट्टारकों की देन है क्योंकि वह एक समय था जो राजा, महाराजा, श्रावक प्रादि जैनी थे, जो स्मृतियां छोड़ गये, हैं, सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, प्राचीन मन्दिर, मूर्तियां, अवशेष, इतिहास एवं साक्षात् दक्षिण प्रान्त में विशेष कर दर्शन करने देखने से पता चलता है। उसके बाद वह समय आया जो जैन तीर्थों पर मन्दिरों पर अन्य समाज ने अधिकार कर लिया एवं नष्ट कर दिया तथा जैन संस्कृति को नष्ट करने के लिए ग्रन्थों को छह मास पर्यन्त जलाये । परन्तु जो भी साहित्य संस्कृति देखने को मिल रही है वह सब भट्टारकों की देन है । भट्टारक जैन के बादशाह हैं । जैनधर्म, संस्कृति, तीर्थक्षेत्रों की उन्होंने रक्षा की।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy